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________________ १६२ त समय देशना - हिन्दी उपशमभाव नहीं है। धानी में पेल दिया फिर भी आवाज तक नहीं आयी, तो आप कहेंगे कि कितना उपशमभाव है। अरे ज्ञानी ! इतना ध्यान क्यों नहीं देते हो, कि मैं आवाज करूँगा तो लोग हँसी करेंगे, इसलिए प्रशंसा नहीं होगी, ऐसा विचार करके शांत बैठा है। ज्ञानी ! मान-कषाय का उपशमन कहाँ है ? और छल से शांत बैठा है तो माया का उपशमन कहाँ है ? प्रशंसा का लोभ है। क्रोध कषाय को पकड़ लिया, शेष कषाय को छोड़ दिया । ये धर्म की परिभाषा है क्या ? एक कषाय को आपने प्रधान बना लिया, शेष कषायों को गौण कर दिया। अरे ज्ञानी ! आपको यह समझना चाहिए, कि उपशम भाव यह कहता है कि चारों कषायों का उपशमन है कि नहीं ? कभी-कभी क्या होता है कि मिथ्यादृष्टि जीव है, क्रोध नहीं कर रहा, प्रसन्न रहता है, तो लोग समझते हैं कि कितना उपशम भाव है। पर, हे ज्ञानी ! इसे उपशम कहोगे? मिथ्यात्व को लिए बैठा है, भाव कषाय और कह रहा है, तो क्या उपशम भाव है? श्लोकवार्तिक में कहा है कि मिथ्यात्व में प्रशमभाव होता ही नहीं है। शुभलेश्या के अंश में कषाय की मंदता तो हो सकती है, पर उपशम भाव नहीं होता। जैसे-कि असंयमी जीव को व्रत करते देखा जाता है, पर व्रती नहीं होता, क्योंकि व्रत वह सीमा में कर रहे हैं, पर कषाय की असीमितता थी। जब तू पालन कर ही रहा है, तो प्रतिज्ञा क्यों नहीं लेता? यह प्रश्न खड़ा कीजिए, क्योंकि अंतरंग में कषाय बैठी है। कभी आवश्यकता पड़ गई तो, मेरे से पालन नहीं हुआ तो। यह 'तो' असंयमभाव है, वह त्रैकालिक विराजमान है, इसलिए व्रत पालन तो है, पर संयम नहीं है। जितने अंश में पाल रहा है, स्रव हो जायेगा, लेकिन अव्रती के अभावरूप जो निर्जरा होने वाली थी, वह नहीं है। चारों अनुयोगों में चिंतन को विशाल बनाओ। अव्रती व्रत का पालन कर रहा है, पर व्रत की प्रतिज्ञा क्यों नहीं ले रहा है? व्रत का पालन मंद कषाय में चल रहा है, पर कषाय की तीव्रता व्रती नहीं होने दे रही है। क्या सिद्धांत है ? अंदर में राग बैठा है, अंदर की कमजोरी है, एक जरा सी कमजोरी आपको फैल कर देती है। औषधि के लिए सम अनुपात चाहिए, और परिणामों का समअनुपात चाहिए। विसम अनुपात में औषधि दोगे, तो रोगी मरण को प्राप्त हो जायेगा । चारों कषायों का समअनुपात चाहिए । एक भी कषाय की तीव्रता रहेगी तो ज्ञानी ! सम्यक्त्व का मरण हो जायेगा। रोटी में नमक डालते हैं, पर आप संभल कर ही डालते हो, अन्यथा पूरी रोटी खराब हो जायेगी, अत: समानुपात चाहिए । आगम क्या बोल रहा है? तपस्या करने के लिए समानुपात चाहिए। क्यों ? तपस्या बढ़ गई, कषाय बढ़ गई, उपशमभाव घट गया, काम बिगाड़ लिया आपने । साधना बढ़ाना थी। इधर ध्यान रखना था कि मेरी साधना बढ़ते हुये मेरी ही साधना पर मेरी ही श्रद्धा बढ़ रही है कि नहीं। कभी-कभी खिंचाव में साधना बढ़ा ली, फिर शरीर टूटना शुरू हुआ। दस उपवास करना है, प्रचार हो गया, अब लोक की मर्यादा रखते हुए उपवास कर रहा है, पर उपशमभाव घट रहा है, शरीर टूट रहा है। साधना बाहर की दिखती है, लेकिन साध्य तेरा छूट रहा है। संभल के सुनना । उपशम भाव नहीं घटना चाहिए और साधना होना चाहिए। उपमशभाव घट गया तेरा, साधना बढ़ गई, तो बहिरंग साधना तो हो जायेगी, पर अंतरंग साधना घट जायेगी। सल्लेखन के काल में अंतरंग साधना ही संभलवाना पड़ती है। किसी अनाड़ी को निर्यापकाचार्य नहीं बना देना । वह कहेगा, 'नहीं तो चलो बैठो सामायिक करो, सामायिक बैठकर करना पड़ती है।' अरे ! उसका शरीर कमजोर है, वह बैठ नहीं सकता तो उससे कहना कि तन लेटा है तो कोई विकल्प नहीं, मन को स्थिर कर सामायिक करो। सामायिक के उपविष्ट अवशिष्ट, उपविष्ट उत्थित, उत्थितो-उत्थित, उत्थितो-उपविष्ट ये चार भेद हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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