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समय देशना - हिन्दी है । दूसरा व्याख्यान, कि व्यवहारनय अभूतार्थ है और भूतार्थ भी है। केवल व्यवहार ही भूतार्थ व अभूतार्थ नहीं है, शुद्धनिश्चय नय भी भूतार्थ भी है और अभूतार्थ भी है। यह समझ में आ जाये, तो विसंवाद समाप्त हो जाये । विसंवाद क्यों हो रहा है ? एकनय से कह देते हैं, कि व्यवहार तो अभूतार्थ ही है, निश्चय भूतार्थ ही है। नहीं, निश्चय तो निश्चयनय की अपेक्षा से भूतार्थ ही है । व्यवहार की अपेक्षा से निश्चय अभूतार्थ है निश्चय की अपेक्षा व्यवहार अभूतार्थ है । व्यवहार तो व्यवहार की अपेक्षा भूतार्थ ही है । क्यों है ? जो व्यवहार-व्यवहार ग्रहण कर रहा है, उसे निश्चय ग्रहण नहीं करता । ध्यान दो, रोटी तो रोटी है, पुड़ी तो पुड़ी है, दोनों गेहूँ द्रव्य से बनी हैं। पर दोनों की पर्याय की प्रत्याशक्ति भिन्न-भिन्न है । तो दोनों में स्वाद कैसा ? जिसको पुड़ी रुचती है, उसके लिए रोटी अभूतार्थ है, और जिसको रोटी रूचती है, उसको पुड़ी अभूतार्थ है। जिसकी योग्यता निश्चय में है ही नहीं, उसके लिए व्यवहार ही भूतार्थ है । शुद्धात्मा को जानते ही नहीं हैं, व्यवहार सम्यक्त्व का ज्ञान ही नहीं हैं, उससे कहना कि तुम देवशास्त्रगुरु की पूजा करो, कम-सेकम द्रव्य-मिथ्यात्व से तो बचो। भूतार्थ है, लेकिन जैसे म्लेच्छ के लिए 'स्वस्ति' शब्द अभूतार्थ था, उसी प्रकार जिसने शुद्धात्मा को जाना नहीं, समझा नहीं, उसके लिए निश्चय तो अभूतार्थ है, परमशुद्धोपयोगी ज्ञानी मुनि के लिए भूतार्थ है । यह बारहवीं गाथा में स्पष्ट होगा ।
चौदह गाथाएँ 'समयसार' की पीठिका है। निर्मलभाव से यह चौदह गाथाएँ समझ में आ गई, तो आगे पूरा समयसार समझ में आ जायेगा । और जो चौदहगाथा पर ही अटक गया है, वह आगे अटका ही रहेगा, नहीं समझ पायेगा। सबसे गहन गाथा तो ग्यारहवीं ही है, जो कि भूतार्थ और अभूतार्थ को कहने वाली है । लोगों ने इसे रट लिया। जब भी व्यवहार का कथन होता है, वह धीरे से घी का घड़ा कह देता है । हे ज्ञानी ! 'घी का घट' यह दृष्टांत व्यवहार का नहीं है। सद्भूत व्यवहारनय से 'घी का घट' नहीं है, असद्भूत व्यवहारनय में घी का घट लग जायेगा, वह भी उपचरित असद्भूत । स्वजाति उपचरित असद्भूत, विजातीय उपचरित असद्भूत स्वजातिय विजातिय उपचरित असद्भूत । शुद्ध सद्भूत, अशुद्ध सद्भूत । अध्यात्मन भिन्न है और आगमनय भिन्न है । यदि नयों को समझ लिया, तो प्रमाण अच्छे से समझ में आता है। प्रमाण, प्रमा, प्रमाता । प्रमा यानी क्या ? जब तूने प्रमाता होकर के भी प्रमेय को नहीं जाना, प्रमा को छोड़कर, प्रमाता होकर प्रमेय को नहीं जाना, तब प्रमिति क्या होगी ? प्रमिति यानी फल। इसलिए एक नय से नहीं चला जाता
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। एक दृष्टि से परिवार नहीं चलता । जिसकी जैसी योग्यता होती है, वैसा काम दिया जाता है । "जावदिया वयणवहा तावदिया चेव होंति णयवाया" |३ / ४७ | ( सन्मतिसूत्र )
जितने वचनवाद, उतने नयवाद । यह तो व्यवहारिक बात है, कि जब भोजन बनाते हैं, तब भिन्न नय होता है, और जब भोजन करते हैं, तब भिन्न नय होता है। जीभ ने अधरों से ग्रास पकड़ा, जीभ ने ग्रास को घुमाया, दाँतों ने ग्रास को चबाया । उस समय तू भोजन कर रहा था क्या ? एवंभूतनय से बोलिये। हे ज्ञानी ! द्रव्य निक्षेप और वर्तमान नैगमनय कह देगा, कि भोजन कर रहा है, परन्तु एवं भूतनय नहीं कहेगा। क्यों ? यदि मुख में रखने को, चबाने को भोजन करना हो जाता, तो चिड़िया अपने मुख में लाती है और चबाती भी है, पर स्वयं नहीं खाती, बच्चे को खिलाती है। नहीं कहलायेगा न ? सूक्ष्म की बात करो। जब तुम अंदर में स्वाद ले रहे होगे, तब एवंभूतनय कहेगा कि भोजन कर रहा है । और इसके पहले भोजन चबा रहा है। एवंभूतनय से जो होगा, वह निश्चित है । जो निगला है, उसका स्वाद ले रहा है, तब भोजन कर रहा है। शेष
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