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समय देशना - हिन्दी
१५१ मालूम चलता है कि तन भिन्न है, चैतन्य भिन्न है। उपयोग जाये बिना वेदना होती नहीं, वेदन होता नहीं। पूरे द्वादशांग का सार इतना है, कि उपयोग बदल दो, यही ब्रह्मचर्य संयम है। उपयोग बदलना चाहिए। इन्द्रियाँ सब रहती हैं, पर उपयोग बदला रहता है तो विषय में रुचि नहीं जाती । अशुद्धात्मा में भी शुद्धात्मा की अनुभूति होती है । अन्यथा शुक्लध्यान नहीं बनता, श्रेणी आरोहण नहीं बनता। जिसे करणानुयोग श्रेणी आरोहण कहता है, उसे द्रव्यानुयोग परम शुद्धोपयोग कहता है । जिसे करणानुयोग शुक्लध्यान कहता है, वह शुद्धोपयोग है। कर्मसापेक्ष अशुद्ध ही है आत्मा । कर्म को निरपेक्ष करके जो वस्तुस्वरूप है, उसे वेदन कर रही है, उस समय वेदक की अपेक्षा से वेद शुद्धात्मा है।
जब तेरा ज्ञान जो ज्ञाता है, प्रमाता है, उसे निहारेगा। इसलिए कारण कार्य, उपचार से वह भी शुद्ध है, पर है अशुद्ध । आज आप व्यवहार से (प्रयोग) करके देखना, अपने आपको आचार्य के रूप में देखना, तन्मय होकर देखना, बिल्कुल शांत होकर देखना । प्रबल कर्म के सहयोग से निकल चुका है, ज्ञायक स्वभाव आत्मा के अनुभव से । आत्मा कर्म में विवेक न करते हुए, यहाँ विवेक का अर्थ भिन्न लेना, जिसका हृदय व्यवहार से विमोहित है, जगत में सर्वाधिक जीव व्यवहार से मोहित हैं। परन्तु जो विशद्, निर्मल, अनेकान्त रूप है, शुद्धात्मा का स्वभाव है, उस परमार्थ को जानने वाले, अपनी विवेक बुद्धि से, बोध से प्राप्त यानी आत्मा व कर्म में विवेक करके, भेद करके, जो मैं एक शुद्धात्मा ज्ञायकस्वरूप मात्र हूँ, उसका ही वेदन करता है। तब वह भूतार्थ का आश्रय करता है, उसको ही अच्छी तरह से देखता है, वही परमार्थ से सम्यक्दृष्टि है । शुद्धनय से शुद्धात्मदर्शी है, उनको व्यवहारनय का अनुसरण नहीं करना चाहिए । आपको नहीं, जो शुद्धात्मानुभूति ले रहे उसके लिए । इसलिए कभी कदाचित् भी प्रयोजन में अपवाद नहीं है । व्यवहारनय अभूतार्थ है। व्यवहार की अपेक्षा भूतार्थ है, निश्चय की अपेक्षा अभूतार्थ है। ॥ भगवान् महावीर स्वामी की जय ।।
aaa __ आचार्य कुंद कुंद स्वामी 'समयसार ग्रंथ में आत्मा के भूतार्थ स्वभाव का कथन कर रहे हैं। निजदृष्टि को भूतार्थ करके ही इस ग्रंथ को समझ पायेंगे। किचिंत भी निमित्त दृष्टि के आश्रित होकर समयसार को सुना, तो समयसार शब्दों में तो समयसार रहेगा, लेकिन श्रद्धा में नहीं आ पायेगा। आपके ऊपर किसी नेएक मुट्ठी कीचड़ फेंक दिया तो, ज्ञानी ! ध्रुव सत्य बोलिए, इसने आपको गंदा किया, कि नहीं किया है ? भूतार्थ यह कहेगा कि शरीर गंदा हुआ ही नहीं, गंदी तो कीचड़ ही थी। यदि शरीर गंदा हो गया है, तो फिर पानी डालने पर भी साफ नहीं होगा। पर कीचड़ ही गंदी है। कीचड़ चिपक ही सकती है, पर गंदा नहीं कर सकती।जब हमारे परिणाम गंदे होते हैं, तब हमारा शरीर कीचड़ से गंदा नजर आता है और जिसने फेंका था, उसके भाव अशुद्ध थे। वह गंदे भावों को ही गंदा कर सकता है। पर किसी के भावों को भी गंदा नहीं कर सकता । यदि आपके परिणाम निर्मल हैं तो, क्योंकि हमने आपको पहले ही कह दिया है, आप बाहरी निमित्तों को गौण करके सुनेंगे, तो समयसार समझ मे आयेगा, समता आयेगी, अन्यथा तो उसने मात्र कीचड़ फेंकी थी, पर तुमने परिणामों को कीचड़ कर डाला और आँखो को लाल करके भावों की कीचड़ फेंकना प्रारंभ किया। यदि उसके परिणाम विशुद्ध रहे तो तेरी भावों की कीचड़ फेंकी थी, पर पारसनाथ का कुछ नहीं बिगड़ा, वे तो केवली भगवान् बन गये । जो कीचड़ को स्वीकारता है, वह नीचे गिरता है। जो कीचड़ को कीचड़ ही देखता है, निज में कीचड़ नहीं देखता है, वह ध्रुव ज्ञायकस्वभाव को प्राप्त होता है। इतनी सामर्थ्य चाहिए, ये भी ध्यान रखना। इतना सबकुछ सहन करने के लिए वार्यान्तर कर्म का क्षयोपशम भी चाहिए और तत्त्वज्ञान का Jain Education International
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