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समय देशना - हिन्दी
१५० समझने के लिये व्यवहार है, परन्तु व्यवहार परमार्थ नहीं है। भूल क्यों कर रहे हो? स्वास्थ्य ठीक रहे, इसलिए औषधी खाना, पर औषधी स्वास्थ्य नहीं है। व्यवहार तो व्यवहार है, परमार्थ तो परमार्थ है। जितना भी व्यवहार का पालन करो, वह परमार्थ के लिए करना, परन्तु व्यवहार को परमार्थ मत मान लेना।
भूल कहाँ चल रही है ? लोगों को इन शब्दों में राग हो जाता है। परमार्थ की भाषा को बोलने का राग भी परमार्थ नहीं है । कोई कहे कि महाराज अध्यात्म बोलते हैं । अध्यात्म बोलना अध्यात्मपना नहीं है, व्यवहार है। जबकि आत्मा में लीन हो जाना अध्यात्मपना है। 'मैं आत्मा में लीन होता हूँ', यह राग छोड़े बिना आत्मा में लीन हो नहीं सकता। यह भी राग है। कैसे रहूँ, कैसे जीऊँ ? जैसे हैं, वैसे रहना ही अध्यात्म है। जीऊँ आदि छोडूं । अप्रमत्त दशा में जेवण नहीं होता है। सब ने 'जेवण' का अर्थ खाना कर दिया । प्रेम से बोलते कि जीम लो। जब तक जीपूँ/जेवण है, तब तक जीवन नहीं। पर कोई प्रज्ञावंत जीव अपने हाथों से फिटकरी को पानी में डाल देता है, तो पानी और पंक को अलग कर देता है। ऐसे ही पुरुष अपनी आत्मा से कर्म और पुरुष को अलग कर देता है। कढ़ाही पर बूरा रख दिया, अग्नि नीचे जल रही है। पहले क्रिया हुई ,कि स्वच्छ बुरा दिखा ? व्यवहार कहेगा, कि क्रिया पहले हुई, निश्चय कहेगा कि स्वच्छ बूरे का भान न होता, तो क्रिया क्यों करते ? व्यवहार कहेगा कि क्रिया पहले हुई, तो शुद्ध देख पायेगा। पर निश्चय ने आँख बंद कर कहा कि इसमें मल है, यह हट जाये तो निर्मल हैं। अशुद्धात्मा, संसारी, चतुर्थादि गुणस्थान में बैठा जीव आँख बंद करके बैठा, क्रिया करेगा क्यों ? वस्तु ही नहीं, तो क्रिया करेगा क्यों । वस्तु त्रैकालिक है, संयम की कढ़ाही है, ध्यान की अग्नि है, भेदविज्ञान की चम्मच है और मेरी आत्मा मिठाई बना रही है। इतना लीन हुआ कि स्वच्छ को ही देख रहा है। अशुद्ध आत्मा भी शुद्धात्मा का वेदन करता है। यह सत्य कह रहा हूँ, पर हमारे व्यवहारी इसे पकड़ नहीं पा रहे हैं और हमने कहा कि अशुद्धात्मा शुद्धात्मा है, तो वे कर्मों को पकड़कर बैठ जाते हैं। वह समझ नहीं रहे कि हम कर्मों को गौण करके स्वच्छता को निहार रहे हैं। आत्मा त्रैकालिक शुद्ध है । कर्मातीत निहारिये । स्वभाव से "सव्वे शुद्धा हू शुद्धणया।'' इस शुद्धात्मा का जो वेदन करता है, वही अप्रमत्त दशा में बैठा योगी, उसे कहना शुद्धोपयोगी। निज द्रव्य में शुद्ध उपयोग जिसका है, वही है शुद्धोपयोगी। डॉक्टर ने फोड़ा देखा, अंदर का रक्त खराब देखा। वह फोड़ा अंदर हुआ क्यों? इसके रक्त में खराबी है। रक्त शुद्ध करो। जो इस पर्याय को शुद्ध करना चाहता है, उससे बड़ा अज्ञानी कोई नहीं मिलेगा। यह पर्याय तो राख होना है, इसे साफ मत कीजिए। इसमें विकार क्यों आ रहे हैं, उस रस को ठीक कीजिए । बहुत अच्छे से समझ में आता है।
आयुर्वेद से भी जैन सिद्धांत को समझाया जा सकता है। प्रमेय-कमल-मार्तण्ड' न्याय का ग्रंथ है, उसमें आचार्य प्रभाचन्द्र ने औषधियों का वर्णन किया है। वर्णन तो कर गये, पर किसी को पकड़ में नहीं आता है। पैर के तलवे पर घी मलो तो आँख की ज्योति बढ़ती है। पर ध्यान दो, कब ? जब नेत्रों में क्षयोपशम है, तब । 'वृहद् द्रव्य संग्रह में आचार्य ब्रह्मदेव सूरि लिखते हैं- "बादाम का सेवन करने से बुद्धि बढ़ती है। घृत से ज्योति व बुद्धि दोनों बढ़ती हैं। पर किसको? जिसका क्षयोपशम है। न कि पागल को। उसको तो उन्मत्तता का कारण बन जायेगा । दूध पीने से शरीर स्वस्थ होता है, चमक आती है, बुद्धि में तेज रहता है, चेहरे में तेज होता है। पर किसको? अस्सी साल वाले को नहीं। जिसका शरीर किशोर/युवा है, उसके लिए । अस्सी साल वाला दूध खराब करेगा, फिर भूमि खराब करेगा । इसलिये विवेक से उपयोग करना । देखो, आप सब्जी बनाते हो, चाकू लग जाता है, पर आपको पता ही नहीं चलता, आप बनाते रहते हो। पर जैसे ही रक्त देखते हो, दर्द होना शुरू हो जाता है। पहले नहीं हो रहा था, पर देखते ही शुरू हो जाता है। इससे Jain Education International
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