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________________ समय देशना - हिन्दी १५२ एपरम पुरूषार्थ चाहिए, खोखला ज्ञान नहीं चाहिए। इतना समझ में आ जाये, कि कीचड़ ही तो गंदी है, तन को गंदा नहीं किया है। जब कीचड़ तन को गंदा नहीं कर सकती है, तो वह कीचड़ मन को गंदा कैसे कर सकती है ? कारण समझना । समयसार सुन रहे हो, इसलिए यहाँ-वहाँ के प्रश्न करना नहीं। जिस सत्यार्थ को समझना चाहते हो, उस सत्यार्थ पर चलिए। हे ज्ञानी ! जब तू मुनिराज बनेगा और कीचड़ को कीचड़ देखेगा, तो तू समता में कैसे रह पायेगा? तुम तन के मुनिराज तो बन जाओगे, पर मन के मुनिराज नहीं बन पाओगे। जो मन में मुनिराज थे, वे कीचड़ के पड़ने से नहीं, वे तलवार के गिरने पर भी यही कह रहे थे, तन पर ही गिरेगी, चेतन पर नहीं गिरेगी। लोहे के गर्म आभूषण पहनाये । कब तक नाम लेते रहेंगे पांडवो का, कार्तिकेय स्वामी का ? विश्वास रखो, जो यहाँ गाथा चल रही है, इस गाथा से ही जी पाये थे। वे कार्तिकेय स्वामी अगर वर्तमान की पर्याय को देखते, तो बहनोई था, जिसने कार्तिकेय स्वामी पर उपसर्ग किया था उसको दोष देते पर वे तत्त्व ज्ञानीजीव थे। अत: ऐसा नहीं किया। यदि आप पर कोई उपसर्ग करे और आप उसे देखेंगे, तो उसको दोष देंगे कि मैनें कुछ भी नहीं किया, फिर यह मुझे क्यों सता रहा है ? एक मिनट को आँख बन्द कर लेना और जाति के जैनपने को छोड़कर जैन सिद्धांत का जैन बन जाना, फिर वहाँ कहना - कर्ता यः कर्मणां भोक्ता, तत्फलानां स एव तू । बहिरन्त रूपाभ्यां, तेषां मुक्तत्वमेव हि ॥१०||स्वरूप संबोधन।। ऐसा मत कहना कि ये सब उपदेश में ही होता है, जीवन में कहाँ होता है। पर ये ध्यान रखना, ऐसा जीवन में नहीं होता तो तुम भाव बना लो कि मोक्ष भी नहीं होता है। आज आचार्य जयसेन की टीका को पढ़ने से पहले उनकी दो गाथा और पढ़ना है। आपको किसी ने परेशान किया तो देखोगे तो दोष दिखेंगे। आँख बंद करना और चिन्तन करना । दोषी ने दोष किया है, कि जिसे तू निर्दोष कह रहा है, उसका दोष है ? सम्हल कर सुनना। जिसे दोषी मान रहा है, उसने दोष किया है। दोषी ने तो वर्तमान में दोष किया है, पर जिस पर दोष किया है, वो दोषी पहले से था। पहले से दोषी न होता, तो मुझे ही देखकर इनको परेशान करने के भाव क्यों आ रहे हैं? अपने बेटे को परेशान क्यों नहीं करता? यदि इसका परेशान करने का ही स्वभाव होता तो अपने घर में ही लोगों को परेशान करता होता। पर मुझे ही क्यों कर रहा है ? इसका मतलब है कि वर्तमान में मैं निर्दोषी जरूर हूँ , पर भूत का दोषी हूँ , जो वर्तमान में नजर आया है। जब-तक इतना धैर्य नहीं ला पायेंगे, तब-तक जिनशासन में दीक्षित होकर नहीं रह पाओगे । क्योंकि बाहरी निमित्त तो सर्वत्र हैं, अपने आपको भी तो निहारो। और यदि आप इन्होंने ऐसा किया, उन्होंने वैसा किया' इसमें लग गये, तो पर्याय ही नष्ट कर पाओगे, परिणाम ही बिगाड़ पाओगे, परन्तु कर्म नष्ट नहीं कर पाओगे। जिसके लिए आप यहाँ विराजते हो, वह यहाँ नहीं मिलेगा; जिसे नहीं चाहते थे, वही मिलेगा। निमित्त तो आयेंगे, उन्हें कब रोक पायेंगे। हम तो उपादान को ही संभाल पायेंगे, निमित्तों को नहीं रोक पायेंगे, मेरे कहने से निमित्तो का अभाव मत समझना। निमित्त तो आयेंगे। उनको मैं कब मना कर रहा हूँ ? उपादान को ही संभाल पाओगे । एक जीव है, वह दिनभर बहुत मेहनत करता है। नहीं है भाग्य प्रबल, तो क्या करेगा ? ज्ञानी ! एक तो तू मेहनत कमाने में कर रहा, सो कमजोर हो रहा है। दूसरा टेंशन में जीयेगा, तो तूने तन, मन, धन तीनों नष्ट कर डाले। जब तेरे अशुभ दिन आते हैं, तो तुझे धन कमाने के पुरुषार्थ के साथ परिणामों को धर्ममय करने की ज्यादा जरूरत है, क्योंकि यही फलित होगा, हाय-हाय फलित नहीं होगा। मैं बार-बार कहता हूँ आपसे, अशुभ के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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