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समय देशना - हिन्दी
१४७ नहीं बोलूँगा। आप घबड़ाना नहीं। समयसार कहता है, पात्र बदल रहे हैं, पर्दा गिर रहा है। यह सब नाटक है। व्यवहार अपना दृश्य दिखाकर चला गया, अब निश्चय प्रवेश कर रहा है। दृष्टि बदल दीजिए, समयसार का हर अधिकार रंगमंच रूप है, यानी जैसे रंगमंच पर पात्र आता है, ऐसे ही व्यवहार को अभूतार्थ कहते हुए, निश्चय को भूतार्थ कहते हुए यह कथन प्रारंभ हो रहा है। अब आप वही समझना जैसा कहा जा रहा है। व्यवहारनय अभूतार्थ है क्योंकि व्यवहारनय अभूतार्थ होने से अभूतार्थ को प्रगट करता है । शब्दों पर ध्यान दो। नीम कड़वी होने से मिश्रीपन का अभूतार्थपना है। अभूतार्थ को प्रगट कर रहा है, इसलिए अभूतार्थ है। मेरा प्रयोजन मिश्री खाने का था, पर दी गई है नीम, तो नीम मिश्री है क्या ? नहीं है। मिश्री की अपेक्षा से नीम अभूतार्थ है। अभूतार्थ होने से अभूतार्थ को प्रगट कर रहा है। व्यवहार अभूतार्थ है, क्योंकि मेरी दृष्टि परमार्थ पर है।
बिल्कुल तन्मय होकर सुनना । अभी मैं अध्यात्म की भाषा में नीति का, वैराग्य का कथन भी नहीं कर रहा हूँ।यह कारिका अध्यात्म के सिद्धान्त को ग्रहण कर रही है। हर नय का अपना-अपना सिद्धांत होता है। यह द्रव्यानुयोग का सिद्धांत है, यह समझ में आ गया तो पूरा समयसार समझ में आयेगा । मुझे मिश्री चखना है। तो नीम में मिश्रीपना है क्या? नहीं है। नीम मिश्री से अभूतार्थ है, वह अभूतार्थ को ही कह रही है, मैं मिश्री नहीं हूँ। अशुद्धात्मा मनुष्यादि शरीर से युक्त नीम स्थानीय है। शुद्धात्मा मिश्री स्थानीय है। नीमस्थानीय अशुद्धात्मा व्यवहार है । व्यवहार पक्ष है प्रतिक्रमण करना, सामायिक करना, प्रत्याख्यान करना। हे ज्ञानी ! ये छोड़ना-छोड़ना, पर को भी छोड़ना है। पर से ही छोड़ना है। इसके छोड़ने का राग भी निज भाव नहीं है। परभाव तो परभाव से हुआ है। निजभाव में लीन नहीं हो रहा है, इसलिए व्यवहार अभूतार्थ है । एक जीव कहता है कि मैं इस पाटे का प्रत्याख्यान करता हूँ, पाटा मेरे से भिन्न है, मैं पाटे से भिन्न हूँ, मैं शब्द से भी भिन्न हूँ। पाटा तो अत्यन्ताभाव रूप भिन्न था, 'मैं' भी अन्योन्य अभाव है। 'मैं' शब्द भी पुद्गल की पर्याय है । 'मैं' शब्द मैं नहीं हूँ। जो 'मैं' शब्द बोल रहा है, वह अशुद्धात्मा है। अशुद्धात्मा मेरा धर्म नहीं है, इसलिए अभूतार्थ है। ज्ञानी ! अब व्यवहार को समझा रहा हूँ, निश्चय के लिए। उस परम योगी से कहा जा रहा है, कि तू यह मत मान बैठना, कि मैंने सिंहासन का प्रत्याख्यान कर दिया है । तो क्या निश्चय प्रत्याख्यान हो गया ? तेरे सिंहासन के त्याग में कहीं दूसरे का सिंहासन तो नहीं आ गया, कि मैं कितना महान हूँ, मैंने तुरन्त ही सिंहासन छोड़ दिया, पर इसने अभी तक सिंहासन नहीं छोड़ा। ज्ञानी ! तू सिंहासन से तो उतर गया, पर सिंहासन के सिंहासन भाव से नहीं उतरा । अपना छोड़ा, तो दूसरे के सिंहासन पर बैठ गया। बोले, मैंने गाँव छोड़ा, ये शब्द तेरे दिमाग में आने लग गया, कि मैंने अपना गाँव छोड़ा, यानी कि तू दूसरे के गाँव में है। अभी तेरा गाँव नहीं छूटा, ग्राम छूटा है। अभी देह-निवासस्थान छूटा है, पर देह में राग का निवास नहीं छूटा है। इन्द्रियग्राम नहीं छूटा, ग्राम छूटा है। वासनाग्राम नहीं छूटा है, ग्राम छूटा है। मानगाँव नहीं छूटा, गाँव छूटा है।
इस 'समयसार' ग्रंथ को, विश्वास रखो, इसलिए कुछ लोग नहीं पढ़ते, कि यदि इसको पढ़ने लग जाऊँगा तो जो मेरा व्यापार चल रहा है, वह छूट जाएगा। एक से कहा कि समयसार का स्वाध्याय कर लो। बड़े प्रेम से कहता है, आप ध्रुव सत्य कह रहे हो, मार्ग यही है, पर अभी कुछ करना चाहता हूँ। इसे पढूंगा तो कुछ कर नहीं सकूँगा। उसने सत्य तो बोला । सत्यार्थ की मुद्रा को प्राप्त करके भी सत्यार्थ प्राप्त नहीं कर पा रहा है, यह दुःख की बात है। आपने अध्ययन किया, डॉक्टर/इंजीनियर की डिग्री प्राप्त करने में धन का व्यय किया। उस जनक-जननी से पूछना कि तूने क्या किया? और जब तेरी संतान बड़ी होगी, वह क्या
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