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________________ १४६ समय देशना - हिन्दी परन्तु अभूतार्थ का अर्थ अभाव ग्रहण नहीं करना । यदि अभूतार्थ को अभावरूप में सर्वथा ले लोगे, तो "एकम खलु द्वितीयो नास्ति' यह सिद्धांत , जो बह्म अद्वैतवादियों का है, आपके यहाँ प्रारंभ हो जायेगा। 'समयसार' एक ऐसा अलौकिक ग्रन्थ है, जिसमें शुद्ध तत्त्व का व्याख्यान है। अगर व्याख्याता और श्रोता दोनों सजग नहीं हैं, तो एकान्त में डूब जायेंगे। यदि हमने अभूतार्थ का अर्थ अभावरूप में ग्रहण कर लिया तो, पूर्ण असत्य रूप ही ग्रहण कर लिया। जैसा ब्रह्मद्वैतवादी कहता है, कि एकमात्र शुद्ध तो ब्रह्म ही है, बाकी कुछ नहीं है। यदि कुछ नहीं है, तो ब्रह्म की सिद्धि कैसे होगी? ब्रह्म की सिद्धि ब्रह्म से नहीं होती है, ब्रह्म की सिद्धि अब्रह्म से होती है। प्रथम पक्ष ही नहीं है तो द्वितीय पक्ष क्या ? विपक्ष ही तो सपक्ष की सिद्धि कराता है। वादी हो और प्रतिवादी न हो, तो यह वाद किसके लिए ? ब्रह्म है, तो अब्रह्म भी है। अब्रह्म का अभाव ही तो ब्रह्म है। विपक्ष की व्यावृत्ति तब होगी, जब सपक्ष सत्य होगा। सत्य ही नहीं है पक्ष-विपक्ष का, फिर सिद्धि किसकी? इसलिए ध्यान रखना, ग्यारहवीं गाथा पर ज्ञानी जोर तो देते हैं, पर चारों ओर से नहीं समझाते, तो दोनों ओर विकल्प खड़े हो जाते हैं। आप अब्रह्म को ही ब्रह्म मत मान लेना, आप अब्रह्म से ब्रह्म का नाश मत कर देना, क्योंकि अब्रह्म के बिना ब्रह्म प्रगट होता नहीं है । निश्चय, निश्चय है; व्यवहार, व्यवहार है। निश्चय की अपेक्षा से व्यवहार अभूतार्थ है। मिट्टी मिला पानी शुद्ध नहीं है, तो पानी नहीं है क्या ? पानी तो है, लेकिन शुद्ध नहीं है। ऐसा ही व्यवहार पक्ष है, शुद्ध नहीं है, इसलिए अभूतार्थ कह रहे हैं। पर अभावभूत अभूतार्थ नहीं है। समझ में आ रहा है न? जो टीका आचार्य अमृतचन्द्र करने जा रहे हैं, इस टीका में शुद्धनय की प्रधानता से कथन है। मैं इसलिए समझा रहा हूँ कि जब टीका करूँगा, तो प्रश्न न करना पड़े कि व्यवहार का नाश तो नहीं हो जायेगा ? व्यवहार का नाश नहीं होगा। व्यवहार आत्मा का स्वभाव नहीं है। शैवाल पानी पर है, शैवाल का अभाव नहीं है, पर शैवाल पानी का स्वभाव नहीं है। कर्म आत्मा में है, कर्मों का अभाव नहीं है, पर कर्म आत्मा का स्वभाव नहीं है। देखो, व्यवहार पक्ष से कह रहा हूँ। आप निश्चय को नहीं जानोगे, नहीं समझोगे, तो साधना किसके लिए, क्या उद्देश्य है साधना करने का ? पानी पीना ही था, तो पानी पी लेना चाहिए था तालाब में जाकर, हाथ मारने की आवश्यकता नहीं थी। हाथ से शैवाल को अलग क्यों करते हो? शैवाल के नीचे पानी है, आप इतने ज्ञानी हो, पानी से शैवाल को हटकार पानी पीते हो। ऐसे ही व्यवहारनय कहता है कि मैं शैवालरूप आच्छादित हूँ, मेरा अभाव नहीं है, पर पानी मेरा स्वभाव नहीं है। मेरे हटाये बिना स्वच्छ पानी पीने को मिलता नहीं। कर्म कहते हैं कि मैं व्यवहार से आत्मा में हूँ,परन्तु मैं आत्मा नहीं हूँ। मेरे को गौण किये बिना आत्मा का स्वाद आता नहीं। इसलिए शैवाल अभूतार्थ है। अभूतार्थ का अर्थ अभाव नहीं लेना। प्रयोजनभूत नहीं है। भूल यहाँ कर लेते हैं लोग, कि भावुकता में अप्रयोजनभूत को अभावभूत बोल देते हैं। बहुत बड़ी गलती है । अभूतार्थ का अर्थ है कि यह प्रयोजनभूत नहीं है । जो प्रयोजनभूत नहीं है, वह हमारे लिए असत्यार्थ है और जो प्रयोजनभूत है, वह हमारे लिए सत्यार्थ है। सुनो, व्यवहारिक भाषा में सुनो, एक गृहस्थ को वंश चलाने के लिए स्त्री भूतार्थ है, पर ब्रह्म-वंश को चलाने के लिए स्त्री अभूतार्थ है । ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए स्त्री अभूतार्थ ही है । अभूतार्थ का मतलब 'प्रयोजनभूत नहीं है', इसलिए अभूतार्थ है। इतना अंतर आपके लिए निश्चय और व्यवहार में है। शुद्धात्मा भूतार्थ है, अशुद्ध आत्मा अभूतार्थ है । अशुद्ध आत्मा का विषय बनता है व्यवहार से, शुद्ध अत्माका विषय बनता है निश्चय से। __ आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी अब व्याख्या कर रहे हैं। मैं भी अब निश्चय पर ही बोलूँगा, व्यवहार को For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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