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समय देशना - हिन्दी
१४५ गाय के दूध को गाय को पिलाइये शाम को, सुबह दूना दूध निकाल लो गाय से। किसान गाय को हरी घास खिलाता है, और गाय का दूध गाय को ही पिलाता है तो दूध ज्यादा मिलेगा। ध्यान दो, ज्ञान को ज्ञेय में ले जाइये, परमशुद्ध ज्ञाता बनाइये। ज्ञान को निज ज्ञेय में ले जाइये, ज्ञाता बनाइये । वह बाहर नहीं जायेगा,वह ऊपर ले जायेगा। विशुद्धि अंश बढ़ते हैं न । विश्वास रखना, मस्तिष्क का ज्यादा उपयोग करोगे, तो विशुद्धि अंश ज्यादा नहीं बढ़ते, थकान आती है। मस्तिष्क का काम कम कर दो, परिवार से हटा लो, आँखों को बंद करके बैठ जाओ तो शक्ति बढ़ेगी, विशुद्धि प्रदान करेगी। शक्ति तो शक्ति है, विद्युत तो विद्युत है। आप बिजली को संचित कर लेते हो बैटरी में। हीटर जलाओगे तो जल्दी नष्ट होगी। इसलिए आप कम-से-कम जलाते हो, तो रात्रि भर प्रकाश में रहते हो। चैतन्य के प्रकाश में तू भेदविज्ञान का दीप जलाता है, तो चित् ज्योति का प्रकाश तेरे चैतन्य भवन में होता है । भोगों का हीटर जला डाला, तेरी शक्ति नष्ट हो गई, तो क्या करेगा? शील को पालने वाला एक अस्सी साल का भी उछलता-कूदता है और अट्ठाइस साल का युवक जिसका शील भंग है, वह थका दिखता है। यह है ध्रुव सत्य । शक्ति जैसी मेरे पास है, वैसी आपके भी पास है। अंतर इतना है कि एक ही बल्ब जलाओ तो रातभर प्रकाश में रहेंगे, तुमने हीटर आदि सारी लाइट जला डाली, तो बैठो अंधेरे में। हम कमण्डलु को बड़े मुख से भरवाते हैं और टोंटी से निकालते हैं। ज्ञानी ! तत्त्वदृष्टि को मुख से भरना चाहिए और निकालना टोटी से चाहिए। क्या करूँ ? आवक है टोटी से, निकाल रहे मुख से ।
में होने पर भी कार्य तेरा स्वकार्य नहीं है। अपने स्वकाय में वस्त्र है स्वकाय में शरीर है. चैतन्य है, फिर भी तेरा चैतन्य स्वकार्य नहीं कर रहा है, इसलिए पर का भान किये बैठा है । वस्त्र अपने चतुष्टय में है। ये सभी द्रव्य, गुण, पर्याय स्वतंत्र हैं। पर स्वकाल में ही स्वकार्य नहीं कर रहे हो । स्वकाल में स्वकार्य नहीं होगा, तो स्वतंत्र नहीं हो पाओगे । स्वकाल में स्वकार्य होना अनिवार्य है। इसका नाम संयम है। इस ‘समयसार' ग्रन्थ से कई मिथ्यात्व निकालते हैं। आप विश्वास मानिये । हे मुमुक्षु! हर वस्तु का कार्य स्वकार्य नहीं होता, अन्यथा सुरापान को मोक्ष मानने वाले भी सम्यग्दृष्टि हो जायेंगे । दर्शनशास्त्र विशाल है। ऐसे-ऐसे दर्शन हुए हैं, जिनमें सुरा-सुंदरी के सेवन को मोक्ष माना है। चार्वाक कहता है कि प्रत्यक्ष प्रमाण को माननेवाला भी मिथ्यादृष्टि होता है। क्यों? प्रत्यक्ष-प्रमाण के सामने न महावीर आयेंगे, न आदिनाथ आयेंगे, न आपके दादा आयेंगे, न दादी आयेगी। प्रत्यक्ष-प्रमाण को माननेवाले के सामने न भूत आयेगा, न भविष्य आयेगा, मृत्यु नहीं होगी, अगर हो जायेगी तो जन्म नहीं होगा। प्रत्यक्ष-प्रमाण को मानने वाला अपने घर नहीं पहुंच पायेगा। कैसे ? प्रत्यक्ष-प्रमाण मात्र मानना घोर मिथ्यात्व है। कभी-कभी धर्मग्रंथ को पढ़ते-पढ़ते भी मिथ्यात्व नहीं जाता । कोई 'मत' मानकर बैठ गया । बहुत से लोग मंदिर जाते हैं, दुकान के लिए, बेटे के लिए। यह सब शुद्ध मिथ्यात्व है। क्योंकि उसने भगवान को कर्ता बना दिया। जबकि भगवान की भक्ति करोगे तो असाता कर्म का संक्रमण होगा, पूण्य उदय आयेगा, तो तुम्हारे काम बन जायेंगे, भगवान कुछ नहीं करेंगे। एकत्व-विभक्त्व भावना में तो रहना है, परन्तु परम्परा से भी दूर रहना है, नहीं तो विपरीत दशा फैल जायेगी, सिद्धांत नष्ट हो जायेगा।
|| भगवान् महावीर स्वामी की जय ।।
सत्यार्थदृष्टि सम्यग्दृष्टि । यहाँ व्यवहार को अभूतार्थ कह रहे हैं, निश्चय को भूतार्थ कह रहे हैं।
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