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समय देशना - हिन्दी
१३७ जीवो वर्णादिमज्जीव जल्पनेपि न तन्मयः ।।40।। अ.अ.क. यह 'अध्यात्म अमृत कलश' है । घी का घट है, ऐसा कहने पर भी घृत का घट नहीं है। यह व्यवहारभासी यों ही कह देते हैं, कि व्यवहार चला गया। अरे ! व्यवहार कहीं भी नहीं चला गया। सत्यार्थ को समझो। मैं मना भी कर दूंगा, कि घी का घृत नहीं है, फिर भी आप घर में घृत का घड़ा ही बोलोगे । हे मुमुक्षु ! मिट्टी का कुंभ घृत नहीं होता, कुंभ में घृत रखा होता है। आधार-आधेय का उपचार होता है। जिसमें घृत रखा है, उस घड़े को लेकर आओ, या घी के घड़े को लेकर आओ। 'ये रिक्शा', रिक्शेवाले को बुला दिया। बोला- हे रिक्शा ! पानी की बाल्टी लेकर आओ। धन्य हो तुम्हारी लीला को। पर इतना तो ध्यान रखिये, कि व्यवहार चल रहा है। बराबर आप जी रहे हो, पर ये ‘समयसार' ग्रन्थ है, उस व्यवहार में लिप्त मत हो जाना । निश्चय को भल मत जाओ। कहीं पानी की बाल्टी ही नहीं समझ लेना । बाल्टी की स्वतंत्रता को समझो. वस्तु की स्वतंत्रता को भी समझो । व्यवहार कह रहा है, पानी की बाल्टी । मैं तुमसे पूछता हूँ, क्या किसी देश/राष्ट्र में, प्रान्त में, क्षेत्र में पानी की बाल्टियाँ भी बनती हैं ? पानी की कोई बाल्टी नहीं होती है। पानी की बाल्टी कहना असत्यार्थ है । बाल्टी धातु की है।
आत्मद्रव्य का वेदन नहीं कर पा रहे हो । पत्तल परोसो, कि पत्तल में परोसो, आप क्या परोसते हो ? पत्तल नहीं खाई जाती है, भोजन खाया जाता है। तन चेतन नहीं है, तन में चेतन है। फिर भी चेतन में तन नहीं है। पत्तल में भोजन है, पर भोजन में पत्तल नहीं है। तन में शुद्धात्मा हो सकती है, पर शुद्धात्मा में तन नहीं होता है। शुद्धात्मा में तन हो गया तो अशरीरी भगवान्-आत्मा में तन हो जायेगा। भोजन में पत्तल नहीं होती है । पत्तल व भोजन में अभूतार्थपना है । भोजन का स्वाद भिन्न है, पत्तल का स्वाद भिन्न है। पत्तल के स्वाद व रोटी के स्वाद में अन्तर है। तन के वेदन में व चैतन्य के वेदन में इतना ही अन्तर है, जितना कि भोजन और पत्तल में है। पत्तल स्वाद-विहीन नहीं है, पत्तल में भी स्वाद है। नहीं मानो तो गाय से पूछो। पत्तल स्वादविहीन नहीं है, पर उसमें वह स्वाद नहीं है जो भोजन में है। अगर वही स्वाद है, तो भोजन क्यों बरबाद करते? पत्तल ही खाना चाहिए। भोगों में भी स्वाद है, परन्तु योगों में परम स्वाद है। अगर दोनों में स्वाद न होता, तो गाय पत्तल क्यों चबा रही होती। अगर योगों में स्वाद न होता, तो योगी, शुद्धात्मा के व्यंजन को क्यों चखते ? योगों में इतना गंभीर स्वाद है, कि कभी-कभी पत्तल पर रखा भोजन फेक देती है,
और पत्तल चबाती है। व्यंजन के स्वाद को जाननेवाले भोजन को ही उठाते हैं और पत्तल को फेकते हैं। अब बताओ कि आप क्या हो ? पर कभी-कभी भोजन के साथ पत्तल भी टूटकर आ जाती है। तो जिव्हा भी समझदार है, पत्तल को बाहर निकाल देती है। ऐसे ही वीतराग भेदविज्ञानी योगी को किंचित भी तन का राग आता है, तो भेदविज्ञान की जीभ से अलग कर देता है, वह स्वाद व्यंजन मात्र का ही लेता है।
यत्र काये मुने: प्रेम, तत: प्रच्याव्य देहिनम् । बुद्धया तदुत्तमे काये, योजयेत्प्रेम नश्यति ||४||समाधितंत्र।
जब योगी को किंचित भी शरीर में प्रेम आ जाये उस समय स्वभत आत्म पद की बात करता है। राग भी तपस्वी के मन में आ जाये, उस क्षण स्वस्थ आत्मा में स्वस्थ आत्मा ही शुद्धात्मा है। स्वस्थ आत्मा यानी शुद्धात्मा । आप सभी अस्वस्थ आत्मा हो। पर पत्तल में इतना रस आ रहा है कि भोजन पर दृष्टि जा नहीं रही है। इसलिए मैं अभी नहीं कह पाऊँगा कि पत्तल के साथ भोजन का स्वाद चख रहे हो। पत्तल मुख में आ जाये तो निकाल दो। तब तो समझ में आता है कि पत्तल आ गई थी, उसे निकाल दिया, भोजन का स्वाद चख रहा
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