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समय देशना - हिन्दी था। मुनि के मन में प्रेम उत्पन्न हो जाये, वह स्वस्थ आत्मा है । लेकिन भूल क्या कर रहे हैं ? पत्तल को चबाते - चबाते इतना मस्त हो चुका है, कि उसके पास भ्रम नाम की कोई वस्तु ही नहीं बची। वो उसे भ्रम (पत्तल) मानता ही नहीं है। वह अपना भोजन मानता है । भ्रम उसे कहे, जिसे किंचित मालूम हो कि द्रव्य है । भ्रम एक में होता ही नहीं है, दो में होता है। जो दूसरों को जानता ही नहीं है, वह अज्ञानी है । भ्रम और अज्ञानी में अन्तर है । भ्रम तो दो के ज्ञान में चलता है। यह है, कि यह है ? लेकिन जिसने दो को जाना ही नहीं है, वह एक से अज्ञानी हैं। जिसने आत्मद्रव्य को जाना ही नहीं है, ऐसा बहिरात्मा देह आदिक में आत्मबुद्धि
मान बैठा है। वह भ्रम में नहीं है, वह परिपूर्ण अज्ञान में है। जंगल में निवास करनेवाले पशु-पक्षी ऐसे भी हैं, जिन्होंने कभी पूड़ी को नहीं देखा। वे जंगल के पत्तों में ही, घास में ही सर्वस्व मानते हैं । वे नगर में कभी आते ही नहीं। नगर में निवास करनेवाले पशु घास को भी जानते हैं, और भोजन को भी जानते हैं, पर जंगल में रहनेवाले ने भोजन देखा ही नहीं ।
हे ज्ञानी ! जिसने मिथ्यात्व के दलदल में फंसे रहने पर, कभी सम्यक्त्व नगर की ओर झाँक कर ही नहीं देखा, वे सूखे पत्तों में ही सबकुछ मान बैठे हैं, उनको अन्य कुछ मालूम ही नहीं है। आपको यथार्थ बताऊँ जो जंगल में रहनेवाले जानवर हैं, उनके सामने शुद्ध घी की पुड़ी भी कोई फेंक दे, तो वे खाते नहीं हैं, क्योंकि उनको वेदन ही नहीं होता । जंगल में आदिवासी रहते हैं । उनको एक बार ज्वार की रोटी पर साग रख कर दी । उन्होंने साग को खा लिया, पर रोटी को फेंक दिया, क्योंकि वह रोटी को जानता नहीं था । बताओ रोटी में रोटीपना था, कि नहीं ? रोटी में रोटीपना त्रैकालिक था, पर तेरे ज्ञान में रोटीपना नहीं है। इसी प्रकार, शुद्धात्मा में शुद्धात्मपना त्रैकालिक है, पर क्या करूँ? जिसने ऊपर की साग-साग देखी है, पर्याय को देखा है, उसे भोग रहा है, और शुद्धात्मानुभूति को फेंक रहा है, कितनी विचित्र दशा है ? मैं जगत का अनुभावक, जगत का ज्ञाता, और ज्ञाता अपने को नहीं जान रहा है। कितना आश्चर्य है ? जगत का ज्ञाता, जो जगत को जान रहा है, वह स्वयं को नहीं जान रहा है ।
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दर्शनाचार्य जी ! जब तू दर्शनशास्त्र पढ़ रहा था, तब तुझे मालूम था कि हेय क्या है? उपादेय क्या है ? और जब तू छल से पैसा कमाता है, तब तुझे मालूम है कि तूने सही नहीं किया है। आज तू ७० साल की उम्र में कमा रहा है, वह तुझे मालूम है, कि मैं जो कमा रहा हूँ, उसे भोग नहीं पाऊँगा । क्योंकि मेरी पर्याय अल्प है, द्रव्य बहुत है । फिर भी, जानने के बाद भी स्वच्छ दृष्टि क्यों नहीं बन रही है ? छोड़ क्यों नहीं देता ? क्यों विषयों में परिणति जाती है ? उस समय तू अज्ञानी होता है क्या ? अज्ञानी नहीं होता। तो ज्ञानी होता ? ज्ञानी नहीं था। तो विषयों के भोग कैसे किये ? और ज्ञानी था तो विषयों में डूबा क्यों ? बोलो अज्ञानी था तो खोदा कैसे ? और ज्ञानी था, तो डूबा कैसे ? तू जानकर अज्ञानी था, जान-जानकर अज्ञानी है । पक्के अज्ञानी हो । अज्ञानता का कारण तेरा ज्ञान ही है। जो दुनियाँ का ज्ञान लाद-लादके रख लिया न, वही तुझे अज्ञानी बनाये है। तुझे सब का ज्ञान है। क्या-क्या करना चाहिए ? उसका ज्ञान है। इसी ने तुझे अज्ञानी बना दिया ।
मुमुक्षु ! जब तूने किसी की कन्या को नहीं जाना था, तब तेरा अब्रह्म भाव नहीं था। जिस दिन तूने किसी की कन्या को जाना, उस ज्ञान ने ही तुझे अज्ञानी बनाया । चिन्तन करो, हृदय को निहारो। क्यों ? आप बहुत बड़े ज्ञानी हो, परन्तु तेरा ज्ञान ही तुझे अज्ञानी बनाये है । इतनी विवेक / बुद्धि न होती, तो वकील क्यों काला कोट पहनता ? तेरे ज्ञान ने ही तुझे काला कोट पहनाया है। तूने ज्ञान से काला कोट पहना है, तो काली
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