________________
समय देशना - हिन्दी
१३३ जो जिनवाणी आप पढ़ रहे हो।
शास्त्र तो पढ़ना, पर दूसरे को सताने के लिए नहीं पढ़ना । कुछ लोग शास्त्र का उपयोग शस्त्र के रूप में कर रहे हैं। जब कुछ नहीं जानते थे तो विनयवंत थे, समाज में मिलकर रहते थे। जबसे शास्त्र पढ़ने लगे, तो पहचान बनाने में लग गये, पहचान को भूल गये । आप न पढ़ते तो अच्छे थे। शास्त्र शास्त्र है, शस्त्र नहीं है। ऐसे ज्ञानी बन गये, जो कहने लगे कि तुम क्या जानो । अरे ! वह इतना जानता है कि वह किसी को सताता नहीं है। आपने किस बात को जान लिया, कि आप परेशान करने लग गये। विश्वास रखो अज्ञानियों से ज्यादा ज्ञानियों से सताये जाते हैं। अज्ञानी तन को पीड़ित करता है, ज्ञानी मन को पीड़ित करता है। पर वह ज्ञानी नहीं होता है । ज्ञानी पुरुष का तो तन व मन दोनों शीतल होते हैं। पर जिसने शास्त्रज्ञान को अपने जीवन का अस्त्र बना लिया हो, उनसे जगत पीड़ित होता है। और जिसने शास्त्रज्ञान को भावश्रुत बनाया है, वह भविष्य में केवली होते हैं । शास्त्रज्ञान को, द्रव्यश्रुत को भावश्रुत बनाने का पुरुषार्थ तो करना, परन्तु द्रव्यश्रुत प्राप्त होते ही पर को पीड़ित करने का विचार कभी नहीं करना । क्योंकि अध्ययन करेगा, प्रज्ञा बढ़ेगी, तो सामान्य लोगों को अपने अनुसार चलाना चाहेगा।
विश्वास रखना, पर को आदेशित करना सबसे बड़ी हिंसा है, क्योंकि कोई किसी की आज्ञा में रहना पसंद नहीं करता । आप आदेशित कर रहे हो, कोई मानना नहीं चाहता, पर आपने चार लोगों के बीच आदेशित कर दिया, तो तुम्हारे स्वाभिमान/अभिमान के पीछे आपकी बात को तो स्वीकारेगा, पर मन से रो रहा है। आचार्य परमेष्ठी को भी आचार्य पद का त्याग करना पड़ता है, तब उनकी संल्लेखना होती है। वे भी मुनिराजों को आदेशित करते हैं परन्तु उनको इतना ध्यान रहता है कि दूसरे कि स्वतंत्रता का घात न हो। यहाँ व्यवहार की बात मत छेड़ना, वस्तुस्वरूप को समझो, हिंसा है। पर की स्वतंत्रता का हनन क्यों कर रहे हो आप? हित दृष्टि कम लोगों में होती है, अपनी आज्ञा के बहुमान की दृष्टि बहुत लोगों में होती है, कि देखो मेरी आज्ञा चलती है. डबल (दो गनी) हिंसा, एक तो स्वयं के अहंकारमय परिणाम किये, दसरे, दसरे के परिणाम खिन्न किये । व्रतों का पालन करते हुए भी निर्वाण को प्राप्त नहीं कर पायेगा, जब तक तेरी चलती रहेगी। जिनदर्शन में धर्म की व्यवस्था सूक्ष्म है। आप अपने अनुचर को पैसे भी देते हो, भोजन भी देते हो, तब काम लेते हो, तब भी हिंसा हो रही है, क्योंकि जब भी वह एकान्त मैं बैठता है, तब सोचता है कि इनकी सेवा करना पड़ रही है। उसके भाव अशुभ होते हैं। यही कारण है कि निर्ग्रन्थ योगी, निर्ग्रन्थ दीक्षा लेकर एकान्त में वास करके स्वयं में निवास करते हैं। पद से बिल्कुल मोह न रखकर, न आदेश सुनना, न आदेश देना । स्वयं में लवलीन होकर परम अहिंसा को प्राप्त होते हैं। आत्मा अहमिन्द्र है। जो अहमिन्द्र होते हैं स्वर्ग में, वे न किसी की आज्ञा को पालते हैं, न देते हैं। वे अपने आप में अहमिन्द्र होते हैं। जिस दिन आप अपनी जीभ की तरह रहने लग जाओगे, उस दिन आप समाधि कर लोगे।
रसना इन्द्रिय से चक्षु इन्द्रिय ने कहा - मैं विश्राम लेती हूँ, आप मेरे विषय को देखते रहना । रसना कहती है चक्षु से - सुनो, मैं स्वतंत्र हूँ, तू स्वतंत्र है । मेरा काम चखना है, देखना नहीं है। इसी प्रकार किसी ने कहा - ऐसा काम कर लो। नहीं, मेरी दशा भिन्न है, तेरी दशा भिन्न है। विषय समझो, आप कहाँ-कहाँ भूल करते हो । बाद में सोचते हो। आप किसी साधु के पास पहुंचे थे माथे पर तिलक लगवाने । साधु सरल थे। इतना तुमने नगर में घुमा दिया, कि उनका सामायिक का समय नष्ट कर दिया। आपको तो मालूम ही नहीं था, आपको तो प्रभावना दिख रही थी। पर चारित्रमोहनीय कर्म का आस्रव जारी था, क्योंकि दूसरे के चारित्र
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org