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समय देशना - हिन्दी
१३४ की साधना में तुमने बाधा डाली। मालूम चला कि आप श्रीफल लिए आचार्यों के चरणों में घूम रहे हो, पर दीक्षा हो नहीं पा रही है। क्यों? जब तुम कर्म का चौक पूर रहे थे, तब पता ही नहीं चला। बहुत संभल के जीने की जरूरत है।
यह कषाय का अंश है । आपने अपनी धर्मपत्नी को समय पर भोजन नहीं दिया, उससे कहा कि इतना काम और कर लो, फिर खा लेना। तू हिंसक है, कि नहीं? पत्नी का संबंध त्रैकालिक नहीं है, वह कुछ समय पहले हो गया था। पर वह जीवद्रव्य है। उसके साथ अनाचार करके बेचारी को समय पर भोजन नहीं करने देते। ये मत सोचना कि मेरी पत्नी है तो कर्मबंध नहीं होगा। जीवद्रव्य का हृदय कलुषित हो रहा है। उससे हिंसा का बंध ही होगा। पत्नी का दृष्टांत इसलिये दिया, क्योंकि पतिदेव समझते है कि पत्नी हमारी वस्तु है । हे ज्ञानी ! पर्याय के संबंध से तेरे घर की वस्तु हो सकती है, परन्तु जीवद्रव्य के संबंध से तेरे घर की वस्तु नहीं होती, वह स्वतंत्र है। ऐसे कितने-कितने काम किये। पिता पर भी आँख उठाई थी। वे आँखें नहीं थी, आँच थी। तूने पिता के पितृ भाव को झुलसा दिया।
__ क्या करूँ, भावश्रुत में दृष्टि नहीं जा रही है। जब तक भावश्रुत में दृष्टि नहीं जा रही है, तब तक भावना विशुद्ध हो ही नहीं सकती, ध्रुव सत्य है । सुनते-सुनते आपके चेहरे क्यों बिगड़ते हैं, ये प्रश्न है मेरा ? अध्यात्म कभी मूसलाधार नहीं बरसता, रिमझिम-रिमझिम बरसता है । मूसलाधार से फसल बिगड़ती है, रिमझिम से हरियाती है।
___ भावनाओं पर दृष्टिपात करो, किसी पर कषाय न हो। पर मन में कषाय बैठी है, ऊपर से शांत नजर आ रहा है, वह अंदर-ही-अंदर झुलस रहा है, जैसे कंडे की राख होती है। संयम धारण किया, फिर अंदर झुलसता रहा, मालूम हुआ कि प्राण निकल गये, परन्तु संयम की राख हो चुकी थी। इसलिए इतनी-सी बात मान लो कि अब थोड़ा जीते-जी जीने लग जाओ तो अच्छा होगा। इस प्रज्ञा को मस्तिष्क में लाओ, सिर पर मत ले जाओ। प्रज्ञा जब चोटी पर पहुँच जाती है, तो फिर किसी को नहीं देखती है। प्रज्ञा मस्तिष्क में रहती है तो विवेक दिखता है। जीते-जीते जीयो । अभी जो जीवन चल रहा है वह मरते-मरते चल रहा है। क्यों? करते-करते बैठे हो, चल रहे हो। ज्ञानी ! अकृत्वभाव पर दृष्टि नहीं है, यही तो मरते-मरते जी रहे हो । जो चिद्वरूप, भगवत् स्वरूप अकृत्वभाव है, उस पर दृष्टि ही नहीं है। पर्याय-की-पर्याय नष्ट हो रही है। शतांश भी तूने पर्याय के अकृत्वभाव पर दृष्टि दे दी तो, विश्वास रखना, मुक्ति हो जायेगी। जगत मरतेमरते जी रहा है। मैं तो देखता रहता हूँ। देखो मोह की दशा, ये समझ रहा है, कि मैं बहुत अच्छा काम कर रहा हूँ। अरे, वह मरते-मरते जी रहा है। समझो कि कोई कमजोर था, आपने उसको गाली दे दी और खुश हो रहे हो। आपको मालूम है कि वह क्या बिगाड़ेगा? लेकिन बिगाड़ने वाले ने तो बिगाड़ ही दिया है। गाली बुरी वस्तु है। आपके मुख से बुरी वस्तु निकली, तो मुँह बिगड़ा कि नहीं? पहले बिगाड़ते हो, फिर कर्म सुन रहा है कि तुमने क्या किया।
आप शुरू से ऐसे नहीं थे। छोटे थे, तो तुम्हारी माँ ने तीन चके की गाड़ी चलाने को दी थी। बेटे से माँ कह रही थी, तुम चलना नहीं जानते हो, तीन चके की गाड़ी को पकड़ लो और चलो। पर ध्यान रखना, तीन चके की गाड़ी पकड़कर चलता है, तो चलना सीख लेता है, कहीं उस तीन चके की गाड़ी की धुरी पर पैर रख दिया, तो गिर जाता है। ऐसे ही भगवती जिनेन्द्रवाणी माँ सरस्वती कह रही है, कि सम्यक्दर्शन-ज्ञान
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