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समय देशना - हिन्दी
१३१ अनादि अविद्या के संस्कार के वशीभूत हुआ जीव जैसे घर में कुटते-पिटते व्यक्ति को कुटा-पिटा नहीं मानता, ऐसे ही अनादि से जिस बंधन में लिप्त हो, उसको बंधन कहना भूल गये हो । एक जगह मैंने पढ़ा, बहुत सारे ऊँटों को उन्हें बाँधना था, तो एक ऊँट के लिए खूटा नहीं बचा, तो उसने क्या किया कि ऐसे ही बँटा ठोक दिया. तो ऊँट बैठ गया। प्रातः हआ. सभी को खोल दिया, पर जिसे बाँधा ही नहीं था. उसे नहीं खोला, तो वह ऊँट वहीं बैठा रहा। फिर उसने सोचा कि ये रस्सी से नहीं बंधा, बुद्धि से बंधा है। वही प्रक्रिया उसके साथ की गई तो फिर वह खड़ा हो गया। आप सोचो, आप बंधे तो नहीं हो, पर बंधन में कौन किसको बाँधे है, कौन किसको पकड़े है ? मेरा मन ही पकड़े है।
कण-कण स्वतंत्र है, प्रत्येक वस्तु स्वतंत्र है, प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र है, मात्र मोह की रस्सी में बंधा हुआ है, बाकी बंधा नहीं है। आपसे अच्छा बैल है। बैल रस्सी से बंधा होता है, पर के बंधन में है, इसलिए वह गौशाला में खड़ा होता है। लेकिन जब भी रस्सी टूट जाये, तो वह दौड़ ही जाता है। पर आप कैसे ज्ञानी जीव हैं ? पूँछ भी नहीं है, सींग भी नहीं हैं, नकेल भी नहीं है, तब भी आप गौशाला की ओर जानेवाले हैं। कितने स्वतंत्र हैं, पर आपको अपनी स्वतंत्रता का भान ही नहीं है। प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। आप सम्मेदशिखर जाते हो, वहाँ आपको अच्छा लगता है, फिर भी आप उसे छोड़कर आ जाते हो, क्योंकि श्रद्धा घर में है। यदि श्रद्धा में किंचित भी उत्कृष्टता होती, तो तू घर नहीं आता । वे ध्रुव टंकोत्कीर्ण परम पारणामिक निजानंद में लवलीन परम योगीश्वर जब यथाजात स्वरूप को निहारते हैं, तब सम्पूर्ण बंधनों से दूर होते हैं।
निर्बन्ध क्यों नहीं हो पा रहे ? बंधा कोई किसी से है नहीं, परन्तु राग की गाँठ प्रबल है. जो छटती नहीं है। मोह परद्रव्य है, कर्म भी परद्रव्य है । पर मोह ने तुझे बाँधकर नहीं रखा, तू ही मोह से बँधा है। दूसरों को दोष देना, निमित्तों को दोष देना आपकी आदत में आ गया है । उपादान को संभालने का पुरुषार्थ करो। कण-कण स्वतंत्र है, प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है, प्रत्येक द्रव्य की परिणति स्वतंत्र है, उत्पाद-व्यय-धौव्य स्वतंत्र है । बंधन कहाँ है ? तू जिस परिवार के राग में जी रहा है, वह भी अपने भाग्य से जी रहा है। क्या व्यवस्था है, तू ही अव्यवस्थित है। व्यवस्था प्रत्येक द्रव्य की स्वतंत्र है। मनुष्य ही परिणामों में अव्यवस्थित है। सभी द्रव्य व्यवस्थित हैं। ये काले बाल सफेद हो गये, किसने किये? समय ने, प्रकृति ने। जब आप बालों को व्यवस्थित नहीं कर पाये, तो बालकों को क्या व्यवस्थित कर पाओगे? वे अपने आप ही व्यवस्थित रहेंगे । तू राग का ही कर्ता है, किसी की व्यवस्था का कर्त्ता नहीं है। यह ध्रुव सत्य है । यदि तू बालकों की व्यवस्था करता है, तो वही बालक बड़ा होकर कहता है कि अलग कर दो। आप फिर कैसा देखते हो? फिर कौन किसकी व्यवस्था देखता है ? जब अलग होने की बात आ गई, तो तुम दोनों स्वतंत्र हो गये और पहले से ही स्वतंत्र मान लेता, तो बालकों का पालक नहीं बनता। जन्म व्यवस्थित है, मृत्यु व्यवस्थित है, योग व्यवस्थित है; पर तेरी परिणति ही अव्यवस्थित है।
जिसको मृत्यु से भय समाप्त हो जाता है, वह या तो साधु बनेगा, या डाकू बनेगा। दोनों लुटेरे हैं, एक धन को लूटता है, दूसरा मन को लूटता है। तुम न लुटो, न पिटो। तुम लौट जाओ शिवधाम पर, तो न लुटना पड़ेगा, न पिटना पड़ेगा। तुम स्वयं साम्राज्य पद को प्राप्त करोगे । यह तत्त्वबोध किसी-न-किसी पर्याय में तो समझ में आयेगा। यह व्यर्थ नहीं जाता।
तुम कितने अभागे हो। तुम्हारे जनक-जननी ने कितना अच्छा नाम रखा, फिर भी पर की कन्या
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