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समय देशना - हिन्दी
१३० नहीं हो पायेगा । ध्यान चेहरे की मुस्कान नहीं है, ध्यान आत्मा का आह्लाद है। मस्तिष्क और चेहरा हो जाये प्रशांत, अंदर में छूट रही गुदगुदी, समझना यही तत्त्व 'ध्यान' है। भूल आपकी नहीं है, भूल बतानेवालों की है, आप तो कुछ जानना चाहते हो । जब आदमी की जानने की इच्छा होती है, तो वह कहीं-न-कहीं तो जाता है। फिर आप बाद में कहें कि विपर्यास किया है। विपर्यास हमने नहीं किया, आपने कराया है। क्योंकि आपने हमें इतना जकड़कर रखा है, कि बाहर निकलकर देखा, तो कुछ और ही आनंद आया।
बंधन में सुख नहीं है, जो खुले में सुख है। खुलापन आना चाहिए। जहाँ बंधन आता है, वहाँ से जीव निकलना चाहता है। अपने को खुला छोड़ दो । शब्दों पर ध्यान दो । इन आध्यात्मिक शब्दों का लोगों ने दुरुपयोग कर दिया। कैसा किया? मैंने कहा कि खुलेपन में सुख है, बंधन में दुःख है, तो लोगों ने क्या किया कि धर्म के, समाज के सारे बंधन तोड़ दिये। स्वच्छन्दी हो गये। जो आत्मा का खुलापन था, उसे विषयों में ले लिया। 'समयसार' ग्रंथ को पढ़कर विषयों में चला गया। बंधन में सुख नहीं है, खुलेपन में सुख है, तो आपने शब्दों का क्या दुरुपयोग किया, सभी मर्यादाओं को तोड़ दिया। शब्द के साथ व्यभिचार कर दिया, विचार नहीं किया। खुलेपन में आनंद है, इसका अर्थ क्या था ? मैं मोक्ष की आकांक्षा में नहीं बंधना चाहता हूँ , मैं स्वर्ग की आकांक्षा में नहीं बंधना चाहता हूँ , मैं मनुष्य के चक्रवर्ती आदि के वैभव में नहीं बंधना चाहता हूँ। जितने भी विद्यार्थी यहाँ बैठे हो, ध्यान देना, जब तक पढ़ाई कर रहे हो, तब तक सर्विस (नौकरी/सेवा) के बन्धन में नहीं बंधना । यदि आपने विचार कर लिया कि मुझे इतना करना है, तो पढ़ाई की सीमा हो जायेगी। आपका असीमित ज्ञान आनेवाला था, वह सीमित हो गया।
निर्ग्रन्थ योगी से कहा गया है कि अब तुम मोक्ष के बंधन से दूर हो जाओ। मुक्त होना चाहते हो, पर मोक्ष की रस्सी से बंध गये हो, तो मुक्त कैसे ? मुक्त होकर ही मुक्ति का आनंद आयेगा। अगर मोक्ष प्राप्ति के राग में चला गया तो, विश्वास रखना, मुक्ति का आनंद नहीं आयेगा, खुला होना चाहिए। अभी आप खुले होकर सुन रहे हो। यदि आपसे कह दें कि एक घंटे आपको बैठना ही पड़ेगा, तो आ गया टेंशन कि मुझे बाँध दिया । आप विश्वास मानो, जितना अध्यात्म से विपर्यास हुआ है, उतना सिद्धांत से कभी नहीं हुआ है। जितने अनर्थ हुए हैं, जितने सम्प्रदाय बने, सब अध्यात्म के नाम पर बने हैं। क्यों? अध्यात्म की गहराइयों को नहीं समझ पाया और जो आत्म-स्वतंत्रता की बात की जा रही थी, वहाँ संयम में स्वच्छन्द हो गया। इसलिए वह समझ नहीं पाया, भटक गया। हे ज्ञानी! समद्र स्वतंत्र है. गहरा है, परन्त स्वच्छन्द नहीं है। समुद्र स्वच्छन्द हो जायेगा, तो पता नहीं कितनों का घात हो जायेगा । हे योगीश्वर ! श्रमण संस्कृति में आपके नाम के आगे तालाब नहीं लगा, नाली नहीं लगी, आपके नाम के साथ सागर लगा है। जो कितना भी भर जाये, परन्तु अपनी सीमा का उल्लंघन नहीं करता । समुद्र अपनी सीमा में रहता है और पानी से भरा होता है, पर जमीन में मणियों को, मोती को सुरक्षित रखता है । हे योगीश्वर ! संयम के नीर से भरे रहना,
के तटों पर चलते रहना परन्त रत्नत्रय के मणियों को सरक्षित रखना.यह सागर है। निर्बंधता ही सख है। एक क्षण को बालक अवस्था को देखो। जैनदर्शन में श्रमण के लिये किसी शब्द का प्रयोग किया है, तो उसका नाम 'यथाजात' है। यथाजात बालक अनंत में जीता है, सीमा में नहीं होता है । जैसी उम्र बढ़ी, कि कपड़ा आ गया कमर पर, तब यथाजातपने का विनाश हो गया; क्योंकि विकारों के बंधन में आ चुका है। ये धागे नहीं, तुम्हारे कमर पर ये प्रमाणपत्र हैं, कि ये वसन वासना पर चढ़े हैं। वासना उतर गई होती, तो वसन अभी खुल गये होते । यथाजात स्वरूप से कोई विरहित है, तो वह वसनों में लिप्त है।
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