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समय देशना - हिन्दी
१२७ है, सिद्धांत कभी ढीला होता ही नहीं है। जड़ को जड़प निहारो, चैतन्य को चैतन्यरूप निहारो, परन्तु जड़ में जड़ मत जाना । चैतन्य को समझने के लिए जड़ को जानो।
विषय को भूलना नहीं, मैं किस पर जोर दे रहा हूँ ? शुष्क हो जाइये । शुष्क यानी सूखापन, किंचित भी आर्द्रता नहीं। यदि सोंठ की गाँठ में गीलापन रह जायेगा, तो डिब्बे में भर दो तो सड़ जायेगी, और पूर्ण शुष्क हो जाये तो औषधी बनती है। सौंठ औषधी है, काष्ठ-वनस्पति है। पर गीली है तो अभक्ष्य है । गीली है तो अनंत संसार है, सूख जाये तो परम सिद्धशिला है। राग नीर में किंचित भी गीलापन रह जाये तो आत्मा अनंतकायों को धारण करेगा, राग से शुष्क हो जाये तो सिद्धशिला पर ही विराजेगा। ये मित्र, शत्रु, भगिनी, जनक, जननी कुछ नहीं। मैं स्वतंत्र हूँ। मेरी स्वतंत्रता का जनक न हुआ, न होगा। मेरी स्वतंत्रता की जननी आज तक न हुई है, न होगी। जितने जनक-जननी हैं, वे मिश्रधारा कर रहे हैं। स्वतंत्रधारा तो मेरी है। जितने जनकजननी हैं, वे तन को उत्पन्न करने में निमित्त तो हैं, परन्तु चेतन के उत्पन्न करने में निमित्त नहीं बन्ध है । फिर पुरूषार्थ किसलिए कर रहे हो ? जब हम द्रव्य को निहारते हैं, पर्यायों को गौंण कर देते हैं। आत्मा पर-पर्यायों से भिन्नत्व-भाव से यक्त है। "आत्मस्वभावं परभाव भिन्नम" इस सत्र की व्याख्या के लिए कम-से-कम दस दिन चाहिए। आत्मा परभाव से भिन्न है निजभाव से अभिन्न है फिर भी विभावदशा में, परभाव में, लीन है। जो ये कह रहा है कि 'आत्मस्वभावं परभाव भिन्नम्', वह शब्द ही कह रहा है। तू विभाव में बैठा है, इसलिए बोल रहा है। स्वभाव में होता तो कहने की आवश्यकता नहीं थी। वहाँ तो आनंद लूटता।
मैनें प्रश्न किया कि जब सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चरित्र आत्मा में है, आत्मा ही है, तो मिथ्यादर्शनज्ञान-चरित्र किसमें होता है ? उसमें आत्मा है क्या ?
परिणमदि जेण दव्वं तक्कालं तन्मय त्ति पण्णत्तं ।
तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेयव्वो ॥८॥ प्र.सा. ॥ स्फटिक पीली है, सफेद है या कि नीली है ? स्फटिक.स्फटिक है । जैसा वर्ण सामने आ जाये, झलकती वैसी है। जब लाल पुष्प आयेगा, तो स्फटिक लाल दिखेगी। जब मिथ्यात्व भाव तेरे अन्दर आयेगा इस आत्मा पर, तो आत्मा मिथ्यात्व रूप ही होगी और जब आत्मा में सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्र होगा, तो आत्मा सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्र भूत होवेगी। गाथा तो सही अर्थ कर रही है। समयसार की महान गाथाएँ सामान्य लोगों के द्वारा अर्थ करने योग्य नहीं बची। वे गाथा स्पष्ट कह रही हैं कि जो व्यवहार से सम्पूर्ण श्रुतज्ञान को जानता है, चौदह पूर्व व ग्यारह अंग को जो आत्मा जान रही है, ये आत्मा श्रुतकेवली है। परन्तु जब ये जानेगी, तब वह ज्ञान किसमें होगा ? आत्मा में। उस समय आत्मा श्रुतकेवली है। जब तक द्रव्यश्रुत का ज्ञान नहीं है, तब तक आत्मा श्रुतकेवली नहीं है । श्रुतकेवली गृहस्थ नहीं होते है । श्रुत हो भी जाये, पर श्रुतकेवली संज्ञा निर्ग्रन्थ मुद्रा धारण किये बिना नहीं है। सर्वार्थसिद्धि का जीव द्वादशांग को जानता है, पर आपने किसी ग्रंथ में नहीं सुना होगा कि सर्वार्थसिद्धि का देव श्रुतकेवली होता है । ध्यान रखना, 'केवली' संज्ञा निर्ग्रन्थ को ही प्रगट होती है, गृहस्थों को नहीं दी जाती। गाथाओं का अर्थ एक से नहीं निकलता। इन दोनों गाथाओं का अर्थ जिसको भी निकालना हो, प्रथम गाथा जो लिखी उस गाथा के संदर्भ में इसका अर्थ निकालो। इसलिए ज्ञान ही आत्मा है, निश्चयनय से निज आत्मा ही श्रुतकेवली है। इस प्रकार समझना।
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