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________________ समय देशना - हिन्दी ॥ भगवान् महावीर स्वामी की जय || १२८ aag I तत्त्वज्ञान विश्रुत को श्रुति प्रदान करता है, परभावों से शून्य निजभावों की ओर प्रेरित करता है । जहाँ किंचित भी पर में राग है, वहाँ स्वभाव का भान लेशमात्र भी नहीं है। वीतरागधर्म भिन्न भाव है, शांति का मार्ग है, निज की धारा में निमग्न होने का मार्ग है ये ध्रुव सत्य स्वीकारना । प्रपंचों में वंचना तो है, प्रपंचना की है, पर बचना नहीं है । बचने का मार्ग प्रपंचातीत है, लौकिकता से शून्य है । लोकाचार मोक्षमार्ग नहीं है । मोक्षमार्ग लोकोत्तराचार मात्र है, क्योंकि शून्य की ओर नहीं जाता है, अशून्य में विराजमान करता है, उसका नाम समयसार है । परभावों से निजभावों को शून्यत्व में ले जायें । परभावों से निजभावों को भिन्न करना, ये परभावों से शून्य दशा है। और निज चैतन्य भाव में लवलीन होना, ये अशून्य दशा है । शून्य का अर्थ जड़त्व नहीं, शून्य का अर्थ चैतन्यसत्ता में लीन हो जाना है। लेकिन जिसने जड़ को ही सर्वस्व मान लिया, उसके पास समय कहाँ है, कि शून्य से अशून्य में लीन हो जावे अहो ! विश्वास मानकर चलना, समय देना पड़ेगा। क्यों, आयु के क्षण कहाँ निकले हैं ? प्रभु के चरणों में भी तो तू बैठा था, पर दृष्टि में निहार रहा था, कि यहाँ से लाभ क्या होने वाला है। हे ज्ञानी ! तू भगवान् की भक्ति का भी आनंद नहीं ले सका । ध्यान देना, भक्त भगवान् के चरणों में भगवान् की भक्ति की इच्छा लेकर आया है, पर भगवान् बनने की भावना कर बैठा, वहीं तूने भगवान् की भक्ति में अन्तराल डाला। क्योंकि एकसाथ दो उपयोग नहीं होते । भक्ति में शून्यवत् होना चाहिए था, तो अशून्य में शून्य चला आता । पर तूने भगवान् के चरणों में आकर व्यापार किया है, कि मुझे मोक्ष मिल जाये । हे ज्ञानी ! मोक्ष तो तुझे ध्रुव करने वाला है, एक क्षण के इस भाव ने भगवान् व तेरे बीच में अंतर किया है। जब मोक्ष की भावना करने से भक्ति में अंतर पड़ गया, तो भगवान् की भक्ति करते जिसकी दृष्टि वित्त (धन) पर चली गई, तो अंतराल ही अंतराल है। यही योग, उपयोग, संयोग की धारा है । योग अर्थात् हाथ जुड़े थे, स्थिर खड़ा था, योग सरल था। संयोग अर्थात् तीर्थंकर का पादमूल था । दो तो मिल गये, पर तीसरा मिलना कठिन था । निहारो ! योग सरल था, क्योंकि प्रभु के चरणों में हाथ जोड़े खड़ा था, संयोग अरहंत का था; पर उपयोग में क्या था, ये तो बता । योग सीधा मिल गया, संयोग अच्छा मिल गया पर, हे मुमुक्षु ! उपयोग में धारा आ गई कि मेरी भक्ति को कितने लोग देख रहे हैं। उपयोग कहाँ गया ? एक विद्वान् तत्त्व उपदेश कर रहा है। उसका वचनयोग अच्छा चल रहा है। जिनवाणी का संयोग है, सुननेवाले आनंद लूट रहे हैं। पर उस विद्वान् की दृष्टि में आ रहा है कि यदि अच्छी प्रभावना होगी, तो टीका अच्छा होगा । हे ज्ञानी ! तेरा तत्त्वज्ञान तेरे लिए कार्यकारी नहीं हुआ। योग भी अच्छा हो गया, संयोग भी अच्छा हो गया, पर उपयोग अच्छा नहीं है, तो संयोग क्या करेगा ? यस्य मोक्षेऽपि नाकांक्षा, स मोक्षमधि गच्छति । इत्युक्तत्वाद्धितान्वेषी कांक्षां न क्वापि योजयेत ॥२१॥स्वरूप संबोधन || हे ज्ञानी ! मोक्ष की इच्छा से भी मोक्ष नहीं मिलता, विश्वास रखना । जो मोक्ष की भी इच्छा नहीं रखता, वही मोक्ष को प्राप्त होता है। जब तक मोक्ष की इच्छा रखोगे, तब तक स्वर्ग ही जा पाओगे । जिस दिन मोक्ष की इच्छा समाप्त कर दी, उस दिन सिद्ध बन जाओगे। मोक्ष की इच्छा यानी मोक्ष के प्रति भक्ति, भक्ति यानी राग, राग यानी शुभोपयोग । शुभोपयोग स्वर्ग देगा, शुभोपयोग मोक्ष नहीं दिला पायेगा । इसलिए आपको वस्तुस्वरूप को समझना है । जैसी भूमिका है, वैसी करना; लेकिन स्वरूप को समझकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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