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________________ समय देशना - हिन्दी १२३ आचार्य भगवान् कुंद-कुंद स्वामी ने समयसार प्राभृत में अध्यात्म के सूत्र प्रदान किये। हे मनीषियो ! यह ध्रुव आत्मा परिपूर्ण है। कर्ममल से शून्य है कर्ममल का संयोग है, इस जीव के साथ । भावकर्म साधन है, भावकर्म शान्त हो जाये, तो द्रव्यकर्म का आना समाप्त हो जाये । वह भावकर्म पराधीन नहीं है, वह स्वाधीन है। जीव चाहें तो अपने परिणामों को निर्मल भी कर सकते हैं, चाहे तो अशुद्ध परिणामों में आनंद भी ले सकते हैं। परिणामों के आनंद लिये बिना विषयों में प्रवृत्ति होती नहीं। विषयों में प्रवृत्ति हो रही है, परिणाम आनंदित हो रहे हैं, इसलिए आपका गमन हो रहा है। यहाँ पर को दोष देना नहीं। पर को नहीं, स्वयं को निहारने का विषय है। स्वयं की रुचि न हो, ज्ञानी ! प्रवृत्ति होती नहीं। भावकर्म का ज्ञान सबको है। छोटासा बालक भी भावकर्म को जानता है। एक चीटी भी पानी को देखकर मुड़ जाती है। पानी पीना होता है तो, किनारे से पी लेती है। उसे भी आत्मरक्षा का भान है। ऐसे ही जो परभावों में परिणति जा रही है, यह परभावों के कारण जा रही है, कि तेरे निज विभाव के कारण जा रही है ? जिसे आप सहज प्रवृत्ति कह रहे हो, वह कषाय की वासना की प्रवृत्ति चल रही है । यह निद्रा है उसका सुख कौन ले रहा है ? आत्मा ले रही है। निद्रा के काल में जो आपने रसगुल्ले खाये थे, सोते-सोते उसका स्वाद लेते हो, और जागृत में स्वाद लेते हो, दोनों का स्वाद एक सा आता है, कि अलग-अलग आता है ? एक सा ही है। अशुभ प्रवृत्ति जैसी जागृत में करता सी ही अनभति स्वप्न में भी आत्मा में आती है, वह वेदन कौन कर रहा था? आत्मा कर रही थी। अहो! आत्मा की यह विभावदशा है। कर्म का बन्ध तेरे में है, कर्म का वेदन तेरे में है, कर्म की वेदना भी तेरे में है। जहाँ कर्म का क्षय होता है, वहाँ स्वप्न भी समाप्त हो जाता है । जब-तक आपके कर्म का सम्बन्ध है, तब तक स्वप्न का सम्बन्ध है। कर्म के सम्बन्ध का नाश हुआ, तो स्वप्न का भी अभाव हुआ । इसलिए यथार्थ मानकर चलना, चाहे शुभ स्वप्न हो, चाहे अशुभ स्वप्न हो, इन सपनों का सम्बन्ध इस जीव से है। पुण्यात्मा जीव को आराधना करने के स्वप्न आते हैं, पापी को विराधना करने के स्वप्न आते हैं। आचार्य भगवान् कुन्दकुन्द स्वामी कह रहे हैं यदि भूतार्थदृष्टि को देखना है । परमार्थ दृष्टि को समझना है, तो द्रव्यकर्मो से अपनी दृष्टि हटा लो, भावकर्मो पर दृष्टि ले जाओ । भाव कर्म अनुभव में आ रहे हैं, भाव आते भी दिखते हैं, भाव जाते भी दिखते हैं। वे आँखों से दिखें, न दिखे आपको भाव भावों से दिखते हैं। जो-जो अशुभ भाव आते हैं, व्यक्ति चाहे तो अशुभभावों को एक क्षण में बदल सकता है। जैसे कि कोई प्रश्न करे, परन्तु आप प्रश्न का उत्तर न दें, तो उस समय प्रश्न करनेवाले का मुख मुरझा जाता है, फीका पड़ जाता है उसका चेहरा, क्योंकि आपने मुख मोड़ लिया है। ध्यान दो, मन में कुभाव आया, तब आपने उस कुभाव की तरफ मुख किया था, तो कुभाव हर्षित हो गया। कुभाव से मुख मोड़ लिया होता, तो कुभाव मुरझा जाता, और स्वभाव में आ जाता। आप यों कहो, कि होता है। होता नहीं है, आप रस लेते हो। रसानुभूति कैसे आये? तो अशुभ भावों का चिन्तन करता है, जिससे विकार और खड़े हो जायें । अशुभ भावों का चिन्तन करने से शरीर में विकार आते है। जो चिन्ता है, वह चिन्तन ही है । अन्तर इतना है, कि उसमें अशुभ कर्म जुड़ा हुआ है तो अशुभ कर्म। अशुभ भावों के आने से शरीर में विकारों का प्रवेश होता है, असंयमभाव होता है, असंयमभाव से कर्मो का बंध होता है और कर्म के बंध से संसार की वृद्धि होती है। यह तुम्हें मालूम है कि नहीं? जिस चिन्तन से अशुभ भावों के विकार आये हैं, वही चिन्तन आप परमात्मा के प्रति कर दो, आत्मा के प्रति कर दो, तो वही चिन्तन कर्मों का अभाव भी करता है। यही ध्यान है। अशुभ चिन्तन में मस्तिष्क भरता है, और शुभ चिन्तन For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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