SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२२ समय देशना - हिन्दी भले स्वच्छ न दिखता हो, पर मन स्वच्छ है । तन की स्वच्छता से मोक्ष नहीं मिलता। तन को कितना भी स्वच्छ करो, पोंछो परन्तु मोक्ष तो मन के स्वच्छ होने पर ही मिलेगा। अशुचिभावना पर दृष्टि करो। यहाँ आचार्य जयसेन स्वामी कह रहे हैं समयसार की नौवीं, दसवीं गाथा की टीका में । वे परमश्रुत केवली जो श्रुत में केलि कर रहे थे। सत्य बताना, जीवन के क्षण कहाँ जाते हैं ? एक तो वैसे ही आपको व्यापार से समय नहीं मिलता, कदाचित् मिल भी जाये, तो कुश्रुति में जाता है । न तुझे जीतना है, न मुझे हारना है। पर तूने 'कौन हारा, कौन जीता' में जीवन बर्बाद कर दिया। राष्ट्रकथा में जीवन जा रहा, कुश्रुति चल रही है । मालूम चला, तू तो पिच्छि कमण्डलु को स्वीकार किये था, जिनमुद्रा में लवलीन था, तू तो निज आत्मप्रदेश का सम्राट था। तू तो अपने राज्य का राज्य कर ही रहा था, फिर क्यों पर की पार्टी के कारण अपना स्वराज्य खो रहा है? राष्ट्र कथा से मिलेगा क्या ? हे ज्ञानियो ! निर्ग्रन्थों की समाचार विधि 'मूलाचार में लिखी है। वे समाचारी हैं। उनके लिये बाहर का समाचार कुकथा ही है, बन्ध का ही कारण है, प्रमाद है। राष्ट्रकथा से निज की रक्षा करना। चोर कथा, किसने चुराया, किसने हरण किया, कैसे हरण किया ? देखो, कितना तन्मय हो रहा है? स्त्रीकथा, स्त्रियों की रागभरी कथा में लवलीन है। और सबसे बड़ी कथा यह कि पेट भरा हो, फिर भी भोजनकथा चलती है। सर्वाधिक कथा भोजन की चलती है। सुबह के भोजन के बर्तन साफ नहीं हुए, कि शाम की चिन्ता शुरू हो जाती है। प्रातः का तो साफ नहीं हुआ, पेट भरा है, और शाम को भरने की चिन्ता शुरू हो गई । यथार्थ मानिये, व्यर्थ के आस्रव से तो हम बच सकते हैं। चन्दन का वृक्ष जैसा होता है, वैसा ही मुनि का भेष होता है। चन्दन के वृक्ष की ऊपरी छाल काली है, भीतर सुगन्ध न्यारी है। ऊपर से योगीश्वर मल से आच्छादित दिखते हैं, भीतर में स्वानुभव की तरंग न्यारी होती |जैसे ही चन्दन के वक्ष की छाल निकलती है तो बाहर सगन्ध फैला देता है उसी प्रकार उन योगीश्वर के पास जो आता है, वह भी सुगन्ध लेकर चला जाता है। हे ज्ञानी ! चन्दन का वृक्ष तो एकेन्द्रिय है, कर्मफलचेतना का भोक्ता है, पर ये यतीश्वर ज्ञानचेतना के फल को भोग रहे हैं। शुद्ध ज्ञानचेतना का कोई भोक्ता है, तो अशरीरी सिद्ध परमात्मा हैं । तू शुद्ध ज्ञानचेतना का वेदक हो या न हो, पर ज्ञानचेतना का भोग तो कर ही सकता है। अनुभूति से, अनुभव से निहारो, जिसे कुन्दकुन्द देव ने उद्घाटित किया है। जो लिखा है वह जब इतना सुन्दर है, तो लखा कितना सुन्दर होगा ? लख-लख कर लिखा है, इसलिए सुन्दर है। सम्यग्दृष्टि जीव सम्यग्सहित है, वह ज्ञानी है। शुद्ध ज्ञानचेतना तो केवल ज्ञान है। उस केवल ज्ञान की अनुभूति लेना चाहते हो, तो निज के ज्ञान से निज के ज्ञान का वेदन करो । असंभव नहीं समझना, पर ध्रुव सत्य बताऊँ, समय देना पड़ता है। यहाँ पर आप सबके प्रश्न समाप्त हो जाते हैं। समय देना पड़ता है, परन्तु आप तत्त्व को समय नहीं देना चाहते, कुकर में डाले गये चावल को समय देना चाहते हो। सीटी बजने का इंतजार करते हो, उतना समय देते हो। ऐसे ही अपनी आत्मा में चारित्र को डाल दीजिए, फिर उसे समय दो, चिन्तन का। आप जिनालय आते हो तो परम्परागत नौ बार णमोकार पढ़ लेते हो। पूजन भी परम्परागत कर लेते हो, पर पाँच मिनट बैठकर निज के लिए समय कहाँ देते हो? घर से आये थे जिनालय में, पहले से भरके आये थे। किस बात से भरे थे? पूजन करना है। मन्दिर में पूजा कर रहा हूँ, इससे भरे रहे। इसका मतलब यह नहीं कि आप पूजन छोड़ दो। उसे छोड़ना नहीं है, उसे करना है। शुभ काम कर रहे हो । पर ध्यान दो, भरे ही नहीं आना, खाली आकर अपने लिए समय निकालना। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy