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समय देशना - हिन्दी
१२१ के काल में जो आपने रसगुल्ले खाये थे, सोते-सोते उसका स्वाद लेते हो, और जागृत में स्वाद लेते हो, दोनों का स्वाद एक सा आता है, कि अलग-अलग आता है ? एक सा ही है। अशुभ प्रवृत्ति जैसी जागृत में करता है, वैसी ही अनुभूति स्वप्न में भी आत्मा में आती है, वह वेदन कौन कर रहा था ? आत्मा कर रही थी। अहो!
की यह विभावदशा है। कर्म का बन्ध तेरे में है, कर्म का वेदन तेरे में है, कर्म की वेदना भी तेरे में है। जहाँ कर्म का क्षय होता है, वहाँ स्वप्न भी समाप्त हो जाता है। जब-तक आपके कर्म का सम्बन्ध है, तब तक र का सम्बन्ध है। कर्म के सम्बन्ध का नाश हुआ, तो स्वप्न का भी अभाव हुआ। इसलिए यथार्थ मानकर चलना, चाहे शुभ स्वप्न हो, चाहे अशुभ स्वप्न हो, इन सपनों का सम्बन्ध इस जीव से है। पुण्यात्मा जीव को आराधना करने के स्वप्न आते हैं, पापी को विराधना करने के स्वप्न आते हैं।
आचार्य भगवान् कुन्दकुन्द स्वामी कह रहे हैं यदि भूतार्थदृष्टि को देखना है। परमार्थ दृष्टि को समझना है, तो द्रव्यकर्मो से अपनी दृष्टि हटा लो, भावकर्मो पर दृष्टि ले जाओ। भाव कर्म अनुभव में आ रहे हैं, भाव आते भी दिखते हैं, भाव जाते भी दिखते हैं। वे आँखों से दिखें, न दिखे आपको भाव भावों से दिखते हैं। जो-जो अशुभ भाव आते हैं, व्यक्ति चाहे तो अशुभभावों को एक क्षण में बदल सकता है । जैसे कि कोई प्रश्न करे, परन्तु आप प्रश्न का उत्तर न दें, तो उस समय प्रश्न करनेवाले का मुख मुरझा जाता है, फीका पड़ जाता है उसका चेहरा, क्योंकि आपने मुख मोड़ लिया है। ध्यान दो, मन में कुभाव आया, तब आपने उस कुभाव की तरफ मुख किया था, तो कुभाव हर्षित हो गया। कुभाव से मुख मोड़ लिया होता, तो कुभाव मुरझा जाता, और स्वभाव में आ जाता।
आप यों कहो, कि होता है । होता नहीं है, आप रस लेते हो । रसानुभूति कैसे आये? तो अशुभ भावों का चिन्तन करता है, जिससे विकार और खड़े हो जायें। अशुभ भावों का चिन्तन करने से शरीर में विकार आते है। जो चिन्ता है, वह चिन्तन ही है। अन्तर इतना है, कि उसमें अशुभ कर्म जुड़ा हुआ है तो अशुभ कर्म। अशुभ भावों के आने से शरीर में विकारों का प्रवेश होता है, असंयमभाव होता है, असंयमभाव से कर्मो का बंध होता है और कर्म के बंध से संसार की वृद्धि होती है । यह तुम्हें मालूम है कि नहीं? जिस चिन्तन से अशुभ भावों के विकार आये हैं, वही चिन्तन आप परमात्मा के प्रति कर दो, आत्मा के प्रति कर दो, तो वही चिन्तन कर्मों का अभाव भी करता है । यही ध्यान है। अशुभ चिन्तन में मस्तिष्क भरता है, और शुभ चिन्तन में मस्तिष्क हल्का होता है।
जिनवाणी के चिन्तन करने से कभी सिरदर्द नहीं होता। पर आपकी गृहस्थी का राग तनक-सा आ जाये, तो तनाव कहलाता है, टेन्शन हो गया, मस्तिष्क गर्म होगया, सारी शक्ति समाप्त हो गई, और जिनवाणी
का चिन्तन करनेवाला इतना विशुद्ध होता है, कि एक क्षण में सात राजू गमन करता है । यह किसकी महिमा . है ? यह शुभचिन्तन की महिमा है। अशुभ चिन्तन आता है, विश्वास रखो, आप सभी अनुभावित है। किंचित
भी तनाव बढ़ता है, तो घर में जाकर चारपाई पर लेट जाता है। तन स्वस्थ है, पर मन स्वस्थ नहीं है । मन स्वस्थ नहीं है, इसलिए तन कार्यकारी नहीं हो रहा । उस चिन्तन को अध्यात्म की ओर मोड़ दो।
मन प्रशस्त रहता है न, तो सब काम अच्छे होते हैं। मन प्रशस्त नहीं है, तो कोई भी काम अच्छा नहीं होता । जैसे आप वस्त्र, शरीर आदि को स्वच्छ रखना पसन्द करते हो न, उससे ज्यादा स्वच्छ रखना चाहिए मन को । मन स्वच्छ रहे वाह तो वस्त्र आदि स्वच्छ न भी हों । दिगम्बर मुनि से तो पूछो, जिनका मल भी आभूषण है। मन इनका स्वच्छ है, इसलिए परमेष्ठी पद में आते है । मल परीषह है। उस पर दृष्टि नहीं है। तन
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