________________
समय देशना हिन्दी
१२०
स्लेट पर 'जीव' लिख देने से जीव नहीं हो जाता, ऐसे ही आत्मानुभूति लिखने से, आत्मानुभूति नहीं होती है। आत्मानुभूति चित्त में होती है । चित्त है, तो विजय है। जो श्रुत से केवल श्रुतात्मा को जानता है, वही श्रुतकेवली है । निश्चय से जो सम्पूर्ण श्रुत को जानता है, वह व्यवहार से श्रुतकेवली है। वह ज्ञान को युगपत् जानता है। आत्मा क्या है ? अनात्मा क्या है ? जितना आवश्यक आत्मा को जानना है, उतना ही आवश्यक अनात्मा को जानना है। अनात्मा को नहीं जानोगे तो आत्मा को जानोगे कैसे ? जो आत्म-अनात्म का भेद नहीं करना जानता है, वह तत्त्वज्ञान से शून्य है । भेद करना जानना तो बहुत आवश्यक है। भेद के बिना कुछ नहीं होता। आप भेद करना जानते हो । कितना जानते हो ? भैयों में भेद कर डाला। परिवार व समाज में भेद करना जानता है। तू भेद करना नहीं जानता होता तो तेरा पेट नहीं भर सकता, तू जी नहीं सकता। एक थाली में कंकण परोसना, एक में भोजन । किस थाली से भोजन करोगे ? हे ज्ञानी ! जैसे कंकणों की थाली को छोड़ देता है, ऐसे ही विषयों के कंकण को क्यों नहीं छोड़ रहा है ? आत्मा का स्वभाव एकत्व ही नहीं है, आत्मा का स्वभाव एकत्व-विभक्तभाव है । निज गुणों में एकत्वभाव करो, और पर गुणों में विभक्त भाव करो ।
|
एकत्व-विभक्तभाव का प्रयोग अध्यात्म में ही नहीं, आपके घर में भी होता है । जनक - जननी से विभक्त हो गया और नारी से एकत्व हो गया ऐसा लगाते हो। जनक - जननी ( का संसार में जन्म देना), उनसे विभक्त होना चाहिए और निज शुद्धात्म रमणी है, उसमें एकत्व होना चाहिए। तू एकत्व विभक्त्व को संसार में ले गया । जनक- जननी कर्म है । द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म इन कर्मों से विभक्त भाव रखना चाहिए था और निज शुद्धात्म रमणी में एकत्वभाव होना चाहिए था ।
I
इस ग्रन्थ पर प्रश्न लिखे जायें, तो कई हजार प्रश्न लिखे जायेंगे। इस ग्रन्थ में अर्थशास्त्र भी है, न्यायशास्त्र भी है, और लोक में जितनी व्यवस्थाएँ हैं, सम्पूर्ण व्यवस्थाएँ इसमें है, और शुद्धात्मा का कथन इसमें है । इसलिए आत्मा-अनात्मा जो कह रहा वह आत्मा है। जिसके माध्यम से कहा जा रहा है, वह अनात्मा है। मैं बोल रहा हूँ, यह जीव द्रव्य है । ओष्ठ, कण्ठ, तालू इनके सहयोग से बोल रहा हूँ, वह अनात्मा है । देह अनात्मा है, चेतन आत्मा है। जो जगत में झलक रहा है, वह अनात्मा है ।
॥ भगवान् महावीर स्वामी की जय ॥
aaa
आचार्य भगवान् कुंद-कुंद स्वामी ने समयसार प्राभृत में अध्यात्म के सूत्र प्रदान किये। हे मनीषियो ! यह ध्रुव आत्मा परिपूर्ण है । कर्ममल से शून्य है कर्ममल का संयोग है, इस जीव के साथ । भावकर्म साधन है, भावकर्म शान्त हो जाये, तो द्रव्यकर्म का आना समाप्त हो जाये । वह भावकर्म पराधीन नहीं है, वह स्वाधीन है । जीव चाहें तो अपने परिणामों को निर्मल भी कर सकते हैं, चाहे तो अशुद्ध परिणामों में आनंद भी ले सकते हैं। परिणामों के आनंद लिये बिना विषयों में प्रवृत्ति होती नहीं । विषयों में प्रवृत्ति हो रही है, परिणाम आनंदित हो रहे हैं, इसलिए आपका गमन हो रहा है। यहाँ पर को दोष देना नहीं। पर को नहीं, स्वयं को निहारने का विषय है । स्वयं की रुचि न हो, ज्ञानी ! प्रवृत्ति होती नहीं । भावकर्म का ज्ञान सबको है। छोटासा बालक भावकर्म को जानता है। एक चीटी भी पानी को देखकर मुड़ जाती है। पानी पीना होता है तो, किनारे से पी लेती है । उसे भी आत्मरक्षा का भान है। ऐसे ही जो परभावों में परिणति जा रही है, यह परभावों के कारण जा रही है, कि तेरे निज विभाव के कारण जा रही है ? जिसे आप सहज प्रवृत्ति कह रहे हो, वह कषाय की वासना की प्रवृत्ति चल रही है। यह निद्रा है उसका सुख कौन ले रहा है ? आत्मा ले रही है । निद्रा
1
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org