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समय देशना - हिन्दी
११८ __ आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने अभूतपूर्व सूत्र प्रदान किये । कालियानाग यदि फुफकार भी मारेगा, डसेगा भी तो पर्याय मात्र पर ही प्रभाव डालेगा। पर विकारीभाव पर्याय को नहीं डसता, परिणामों को डसता है। विकारीभाव जिनसे परिणामों का घात होता है, वह परम संसार का कारण है । स्वानुभव से निहारना। जब-जब आपके मन में अशुभ परिणाम आते हैं, तब-तब उन अशुभ भावों के काल में वेदन करो, कि आपकी अनुभूति कैसी होती है ? जगत की आनंदकारी सम्पूर्ण द्रव्य सामने होती हैं, यहाँ तक कि जो जिनेन्द्र की प्रतिमा आपको सुखानुभूति दे रही थी, वह प्रतिमा भी वहाँ रहती है। लेकिन प्रतिमावान प्रीति रूप नहीं है, तो वह प्रतिमा क्या करेगी? निहारो एक चकवी को चकवा का विरह जितनी पीड़ा देता है, विश्वास रखना, शुभभावों का विरह ज्ञानी को उतनी ही पीड़ा देता है । बल्कि यूँ कहना चाहिए कि वह जो विरह था, उसकी पीड़ा तो दुनियाँ जानती है, पीड़ा कहती है, पर विश्वास रखना, संयोग की जो पीड़ा है, उससे बड़ी जगत में कोई पीड़ा नहीं है । विरह की पीड़ा दु:खरूप महसूस होती है, सहयोग की पीड़ा सुख रूप महसूस होती है। दोनों ही पीड़ायें बन्ध के ही कारण है। विरहकाल में हो सकता है, साम्यभाव आये, विरहकाल में भगवत्ता का भान होता है, विरहकाल में भगवान् का नाम तो याद रहता है। संयोग के काल में भगवान् का नाम भी पलायमान हो जाता है। इसलिए बंध का कारण विरहकाल इतना नहीं है जितना संयोग है। एकत्व-विभक्त्व भाव को विरह शब्द से जोडिये। एकत्वविभक्त्वभाव आत्मा का स्वभाव है, पृथक्त्वभाव है। संयोगभाव किंचित भी आत्मा का स्वभाव नहीं है।
यह श्रुतज्ञान की धारा है। श्रुतज्ञान भगवान् बनाता है । मनःपर्यय ज्ञान भगवान् कभी बनाता नहीं। जब भी भगवान् बनोगे, तो श्रुतज्ञान की गहराई से ही बनोगे। कैवल्य का जनक तो श्रुतज्ञान है। जो स्वानुभूति है, शुद्धोपयोग की धारा है, वह तो योगी के अनुभव का विषय है, और जो ध्यान का विषय है, वह सब श्रुतज्ञान है। श्रुतज्ञान जो स्मृति में है, वही तेरे संसार और मोक्ष का साधन है. श्रत जहाँ शभ है. मोक्ष का साधन है। श्रुत जहाँ अशुभ है, बंध का साधन है। स्मृतियाँ जो हैं, वस्तु नहीं है, स्मृतियाँ तुझे सता रही है। अस्सी साल के उस वृद्ध व्यक्ति से पूछो, वस्तु नहीं है उसके सामने, व्यक्ति भी नहीं रहा उसके सामने, पर स्मृतियाँ सता रही हैं। ये स्मृतियाँ यदि सम्यक्त्व हो जायें, तो तू भगवत्ता को प्राप्त कर लें। ध्यान करने बैठा ,नेत्र बन्द थे, दर्शक निहार रहे थे, वे देखकर निर्बन्ध हो रहे थे, पर आँख बन्द किये तू बन्ध कर रहा था। क्षेत्र तीर्थ था, वस्तु अर्हन्त की प्रतिमा थी, व्यक्ति निर्ग्रन्थ मुनि थे, फिर भी उस भूमि पर बैठकर भी स्मृतियाँ तेरी अशुभ थी । न तीर्थ तुझे तीर्थंकर बना पायेगा, न वस्तु तुझे भगवान् बना पायेगी, न व्यक्ति तुझे परमेश्वर बना पायेगा । यदि स्मृतियाँ निर्मल नहीं हैं तो, हे ज्ञानी ! कहीं भी पहुँच जाना, परन्तु सभी जगह बन्ध-हीबन्ध होगा। और स्मृतियाँ निर्मल हैं, तो श्मशान घाट पर भी भगवान् बनता है। स्मृतियाँ शुभ नहीं हैं, तो कंचन के महलों में भी बन्ध होता है, निर्बन्ध नहीं होता। बन्ध दिखे या न दिखे, निर्बन्ध दिखे या न दिखे, पर भाव दिखते हैं । अशुभ भावों के होत-होते किंचित भी स्मृति शुभ में चली गई, तभी सोचना, अहो-अहो हमने कितना अशुभ सोच लिया।
प्रभु की आराधना में थकान आना शुरू हो रही है, जिनवाणी पढ़ते-पढ़ते सो जाता है। पर, अहो! सुख में ही तो नींद आती है, ये जिनवचन सुख में थे, इनमें नींद तुरन्त आ गई थी। पर अशुभ क्रिया में रत था, तो सो भी नहीं सका, और शुभ भी नहीं कर सकता, कुश्रुतज्ञान है। नौवीं, दसवीं गाथा 'समयसार' जी की चल रही है। क्या कह रहे है भगवान कुन्द-कुन्द स्वामी,
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