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समय देशना - हिन्दी
११७ लवलीन हो जा । मैं ज्ञेय हूँ , मैं ज्ञाता नहीं हूँ। पर ज्ञेय ज्ञाता होते नहीं, पर ज्ञेय ज्ञाता कभी हुए नहीं, होंगे नहीं । परन्तु ज्ञेय तो ज्ञेय है, ज्ञाता नहीं। परन्तु ज्ञाता ज्ञेयों का जानने का राग लाता है। ज्ञेय ज्ञाता को राग उत्पन्न करते नहीं, ज्ञेय ज्ञाता हुए नहीं, ज्ञेयों ने ज्ञाता को बुलाया नहीं, ज्ञेयों ने ज्ञाता को कभी भगाया नहीं, ज्ञाता कभी ज्ञेय होता नहीं, ज्ञाता ज्ञेय में जाता नहीं, फिर भी ज्ञाता ज्ञेय में राग करके अपने ज्ञातृव्य भाव को खो रहा है। इसलिए ज्ञेय तो ज्ञेय है, ज्ञाता भी ज्ञाता है। हे ज्ञाताओ ! ज्ञेय को ज्ञेय जानिये, ज्ञाता को ज्ञाता जानिये । निज ज्ञान, निज ज्ञेय, निज ज्ञप्ति ही तेरा ध्येय हो, पर-ज्ञान, पर-ज्ञातव्य तेरा स्वभाव नहीं है। ज्ञायकभाव ही तेरा स्वभाव है। ज्ञेयों ने तुझे भ्रमित किया नहीं, परन्तु ज्ञाता ही राग से भ्रमित हुआ है । पेन ज्ञेय है, ज्ञाता नहीं है। कितना महान है, जो कि त्रैकालिक अपने चतुष्टय में लीन है, किसी भी ज्ञाता से कहता नहीं, कि तू मेरा नाम ले। परन्तु ज्ञाता ज्ञाता होकर अज्ञाता है कि मेरा नाम ले रहे हैं। अरे ! इतने में निज का ध्यान कर लेता तो मेरा नाम क्यों लेता ? मेरा नाम न लेता । मेरा ज्ञान स्वयमेव हो जाता है, केवलज्ञान।
ज्ञाता! ज्ञेय में दोष देने की आदत छोड़िये। किसी भी मोदक ने तुझे बुलाया नहीं। लड्डू ने कब कहा या श्रीफल चढ़ाया कि आओ, मुझे खा जाओ? अपने उपादान को क्यों नहीं दोष देता है कि तू ही गया, तूने ही खाया, अब पेट दर्द कर रहा है तो तू ही भोग । परन्तु पर-ज्ञेयों से छूटने में पुरुषार्थ चाहिए, शुष्क हृदय चाहिए, सूखा हृदय । कुछ विषय ऐसे आते हैं कि मैं आपको शब्दों में बता नहीं सकता हूँ। जो मैं 'शुष्क शब्द पर जोर दे रहा हूँ, वह अन्दर की अनुभूति बोल रही है। 'शुष्क हृदय चाहिए', यहाँ पर प्रेम, वात्सल्य पर नहीं जाना । यह सब राग की दशा है। ज्ञायकभाव तो वीतरागभाव मात्र है। जाननभाव भी रागभाव है, ज्ञायकभाव शुद्धशुष्क चिदानंद भाव है । जाननभाव रागभाव है कि मैं जानूँ इस समयसार में क्या लिखा है? समयसार स्वभाव नहीं है, तू समयसार को जानने का रागी है। बहुत सारा विषय मेरे मस्तिष्क में आता है, हृदय में आता है, मैं आपको बताता नहीं हूँ। यदि बता दूंगा तो आप यही कहोगे कि महाराज ! लोक में बैठे क्यों हो?
एक विद्वान् ने कहा- महाराज श्री ! आप समयसार की बात करो। तो समयसार की जैसे ही बात की, उसी समय वह विद्वान् हाथ जोड़ता है 'महाराज ! व्यवहार का लोप हो जायेगा।' इतनी जल्दी घबड़ा गया। अरे ! व्यवहार का लोप होता ही नहीं है, निश्चय की प्राप्ति होती है। यदि मंजिल की प्रथम सीढ़ी पर पैर रखा है, तो सीढ़ी का लोप नहीं हो गया, तेरे लिए अगली सीढ़ी बन गई है। अभी समझ नहीं रहे निश्चय व व्यवहार वाले। निश्चय की चर्चा से व्यवहार का लोप होने लग गया, तो सत्ता का विनाश हो जायेगा। निश्चय की भाषा से व्यवहार का लोप नहीं होता है। निश्चय की भाषा से व्यवहार का जो सारभत है, उसकी प्राप्ति होती है। क्या करूँ? जितने वक्ता हैं, वक्तृत्व की गहराई में जाये बिना बोलकर आ जाते हैं और लोगों को भ्रमित कर देते हैं। एक कहता है कि व्यवहार की बात हो रही है, वहाँ पर नहीं जाना, अन्यथा निश्चय धर्म का लोप हो जायेगा । दूसरा कहता है कि निश्चय की बात हो रही, वहाँ मत जाना, अन्यथा व्यवहार धर्म का लोप हो जायेगा । हे ज्ञानी आत्माओ ! अभी तुमने वस्तुस्वरूप को नहीं जाना है। जो जीव है, तुम हजार आदमी को लेकर उसे जड़ कहने लग जाओ, पूरा सिद्धांत ही बना दो कि अमुक पुरुष जड़ है लेकिन कागज भर जायेंगे, ग्रन्थ लिख जायेंगे, पर विश्वास रखना, उसे तुम जड़ नहीं बना पाओगे, तुम्हारी दृष्टि जड़ में जड़ जायेगी। वह तो जैसा है, वैसा ही होता है। मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व सिद्धांत से वस्तु मिथ्या नहीं होती है। तेरा भाव मिथ्या होता है। वस्तु तो जैसी होती है, वैसी होती है। कट्टरवादी होना पड़ेगा। सिद्धांत में कट्टरता ही होती
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