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समय देशना - हिन्दी
११६ है, आशीर्वाद है। अंजुली पर्याय थी। पर्यायी के साथ हाथ की पर्याय भी बदल रही थी। कर ही नहीं बदल रहा है, करण भी बदल रहा है। करण नहीं बदलेगा, तो कर कैसे बदला ? हाथ की पर्याय बदल रही थी, पर्यायी के परिणाम भी बदल रहे थे। जैसी पर्यायी की रचना होती है, वैसी पर्याय बनती है। ये मुनिराज आशीर्वाद भी देते हैं, तो अंजुली भी बनाते हैं। अंजुली बनाते समय आशीर्वाद नहीं देते है। यदि हर समय आशीर्वाद की पर्याय बनाये रखूगा, तो पेट नहीं भर पायेगा । ज्ञानी ! हर समय ऐसी पर्याय रहेगी, तो परमात्मा नहीं बन पाओगे। यह जैनतत्त्व है। यह है वस्तुस्वरूप। जहाँ लगाना चाहो वहाँ लगा लो । माँ के पास तू एक-सी पर्याय में नहीं जाता । एक पर्याय से सबको देखेगा, तो इस लोक में व्यभिचार छा जायेगा, विचार नाम की वस्तु नष्ट हो जायेगी. व्यभिचार खडा हो जायेगा । इसलिए पर्याय ही नहीं बदलती है, परिणाम भी बदल रहे हैं। ये अज्ञानियों के शब्द हैं कि 'पर्याय का परिणमन पर्याय में हो रहा है, तू तो शुद्ध द्रव्य है।' विषय को समझो। द्रव्यदृष्टि से शुद्ध है, परन्तु द्रव्य अभी विकारों से युक्त है। चार्वाक हैं सब- 'जब तक जीयो सुख से जीयो, नहीं हो तो ऋण लेके जीयो। किसने देखा नरक?' ये चार्वाक है विषयों में समाधि नहीं, समाधि में विषयानुभूति होती है।' तो समयसार ग्रन्थ का दुरुपयोग किया है। आप चाहो तो मैं कई अर्थों में इसको सुना सकता हूँ। वे कई रूप यहीं रह जायेंगे, एकरूप नहीं हो पायेंगे । एकरूप को प्राप्त करना है तो शुद्धनय से कथन करना पड़ेगा। समाधि में भोग नहीं होते और भोगों में समाधि भी नहीं होती। ध्रुव सत्य है। | भगवान् महावीर स्वामी की जय ।।
qga पक्ष से शून्य होकर एक दिन तो स्वतंत्रता का वेदन कर लो । एक दिन न सही, एक मिनट कर लो, स्वतंत्रता का वेदन । मेरे में मनुष्य जाति नहीं है, मेरे में मनुष्यायु नहीं है, मेरे में मार्गणा व गुणस्थान नहीं है। मैं बन्ध से भी शून्य हूँ। मेरे में समाज क्या, संग क्या, सम्प्रदाय क्या, जाति क्या ? तू मेरा शिष्य पहले बना था, कि जीव पहले था ? क्या जगत की लीला है, अपनी स्वतंत्र सत्ता को कैसे खो रहा है। मेरा शिष्य तू नहीं बना, पर का शिष्य नहीं बना, पर का पति नहीं बना, पर की पत्नी नहीं बनी। जगत का कोई भी ज्ञेय किसी के ज्ञान को पराधीन नहीं करता । प्रमिति 'प्रमिति' है, प्रमिति 'प्रमाण' नहीं है । प्रमाता 'प्रमाता है, प्रमेय 'प्रमेय हैं; परन्तु प्रमेय प्रमाता नहीं है, प्रमाता प्रमेय नहीं है । प्रमाण प्रमाण है, प्रमाता का धर्म है प्रमाण, प्रमाण का फल है प्रमिति, प्रमाण का ध्येय है प्रमेया प्रमाता ध्रुव है, प्रमाण ध्रुव है, प्रमिति (जानन क्रिया) परिणमनशील है। प्रमेय प्रमेय है, प्रमेय कभी प्रमाण से कहने आया नहीं, हे प्रमाता ! तू अपने प्रमाण से मुझे प्रमिति रूप निहार । प्रमेय यानी ज्ञेय । प्रमेय ने किसी प्रमाता को किसी प्रमिति से च्युत किया नहीं। प्रमाता ने ही प्रमिति प्रमेय में प्रवेश किया । प्रमेय कभी प्रमाता में गया नहीं। हे प्रमाता ! तू अपने प्रमाण से अपने को प्रमेय बनाता, अपनी प्रमिति से अपने प्रमेय को निहारता, वही तुम्हारी शुद्धात्मा की शुद्धि है। अध्यात्म भाषा को न्याय भाषा में कहा जा रहा है। जिसे अध्यात्म निर्विकल्प ध्यान कहेगा, उसे दर्शनशास्त्र क्या कहेगा ? हे प्रमाता ! अपने प्रमाण से, अपने को ही प्रमेय में, अपनी प्रमिति से जानो, यही निर्विकल्प ध्यान है। कण-कण स्वतंत्र है । ज्ञेयों ने ज्ञाता को भ्रमित नहीं किया , ज्ञाता ही ज्ञेयों में राग लेकर जाता है। प्रमिति का काम प्रमित यानी फल जानन क्रिया है। ज्ञान जानता है, ज्ञान का काम जानना है। प्रमिति जता रही है, क्रिया कर रही है। अज्ञानता की हानि हो रही है, उपेक्षाभाव जग रहा है । ज्ञाता ! तू ज्ञायकभाव में
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