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________________ समय देशना - हिन्दी ११५ शादी के समारोह में समाज खड़ी हो जाती है, पर स्वतंत्रता दूल्हे की है । ज्ञानी ! उपयोग जिस इन्द्रिय पर जाता है, शेष सब इन्द्रियों का उपयोग हट जाता है। एक समय एक ही काम । जब कर्ण-इन्द्रिय का उपयोग होता है, तो आत्मा के सम्पूर्ण प्रदेश कर्णेन्द्रिय के साथ हो जाते हैं। जिसका पलड़ा भारी होता है, आप वहीं पहँच जाते हैं। ऐसे ही जिस इन्द्रिय का कार्य प्रारंभ हो गया है, तब सभी इन्द्रियाँ उसमें ही तन्मय हो जाती हैं। जैसे ही वहाँ से हटा ,तब दूसरी जगह पहुँच जाती हैं। जब आप अब्रह्मरूप में परिणति करते हो, तब उन आत्मप्रदेशों को वैसा आनंद होता है । वही परमानंद शुद्ध स्वरूप में विराजमान होता है, तब इन्द्रियाँ सभी बैठी रह जाती हैं और उपयोग तन्मय हो जाता है। "अर्पितानर्पिता सिद्धे" महावीर जयन्ती के दिन तेईस तीर्थंकर का पता ही नहीं चलता कि कहाँ हैं, क्योंकि प्रधानता महावीर स्वामी की है। जिस दिन तुम सबसे रहित होगे, उस दिन 'जिन' से सहित होगे। जब तक इनसे रहित नहीं और जिन से सहित नहीं, तब-तक परावर्तन चल ही रहा है। आप यहाँ सुन रहे हो न, यह भी सुकृत है, पुरुषार्थ है। सत्य को सुनने आये हो, कभी-न-कभी यह उदय में आयेगा। शुद्ध समरसी भाव को, परभाव की मिलावट की जरूरत नहीं है। इसमें जो लिप्त हो जाता है, वह पर से अलिप्त होता है। रसवंती को चखने पर द्वैतभाव होता है। रस-रस को पीने पर अद्वैतभाव होता है। रसवन्ती यानी जलेबी। उस जलेबी में आटे का स्वाद साथ में चलता है, पूरा स्वाद नहीं आता है, जो शुद्ध रस शुद्ध का स्वाद देता है। ऐसे ही भक्ति आदि व्यवहार-धर्म है, जलेबी का स्वाद है। जो निश्चय शुद्धात्मा का स्वभाव है, वह शुद्ध रस का स्वाद है। व्यवहार 'व्यवहार' है, व्यवहार 'निश्चय' नहीं है । व्यवहार 'निश्चय' का साधक है, व्यवहार ‘साध्य' नहीं है, साध्य निश्चय ही है। जलेबी, जलेबी है, रस, रस है। जलेबी में रस नहीं है, जलेबी के अन्दर रस है। सूखी जलेबी खा कर देख लेना (बिना रस की), कोई स्वाद नहीं आता। जलेबी में रस भरा गया है। जो भरा गया है, वह सत्य नहीं होता है । जो होता है, वह सत्य होता है। रस में रस भरा नहीं जाता, जलेबी में रस भरा जाता है। जलेबी रस से युक्त है, पर रस नहीं है। भूतार्थ तो भूतार्थ है और अभूतार्थ भी अभूतार्थ है। विश्वास रखना, द्वैत भाव में सारा जीवन नष्ट हो रहा है। कम-से-कम वह श्रेष्ठमय है, जो भगवान् का द्वैत भक्त बनकर जी रहा है, वह कभी भगवान् बन जायेगा। पर तुम तो भोगों के गर्त में (द्वैत में) जी रहे हो। ये द्वैतभाव नीचे गिराने वाला ही है। जब तन व चेतन का द्वैतभाव भ्रमित करा देता है, तो पर का द्वैतभाव निज चैतन्य कैसे दिलायेगा? आप कहें या न कहें, पर आप वस्तुओं को अब देखते नहीं, पोते को दिखाने जाते हो मेला । जब मिलने का समय आया, तो मेला देखने चले गये । युवावस्था में कषाय, भोग, वासना मिलने नहीं दे रहे थे। अब ठण्डे पड़ गये न? ठण्डे (ठहरे) पानी में नीचे का मोती भी दिखता है। आप ठण्डे पड़ गये थे, फिर भी आप बच्चे के साथ घूमने गये थे। समझो, मैं क्या कह रहा हूँ। ठण्डे पड़ गये न? तो गर्मी की यादें भी छोड़ दो। ठण्डे तो पड़ जाते हैं, पर गर्मी की यादें ठण्डा पड़ने नहीं देती। इतना समझाना था। - ग्यारहवीं गाथा निश्चय-प्रधान है। निश्चयनय-प्रधान मत कहना। निश्चय शुद्ध है, नय कथनशैली 'है, वह तो कहता है, पर वस्तु निश्चित होती है। व्यवहारनय अभूतार्थ है। जो शुद्ध नय है, उसे भूतार्थ कहा है। निश्चय में जो निश्चय को आश्रित करता है, वही सम्यग्दृष्टि है। निश्चय से ये हाथ है, अंजुली है, मुष्टि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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