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________________ ११३ समय देशना - हिन्दी है, उसे भोग रहा है, और शुद्धात्मानुभूति को फेंक रहा है, कितनी विचित्र दशा है ? मैं जगत का अनुभावक, जगत का ज्ञाता, और ज्ञाता अपने को नहीं जान रहा है। कितना आश्चर्य है ? तू जगत का ज्ञाता, जो जगत को जान रहा है, वह स्वयं को नहीं जान रहा है । दर्शनाचार्य जी ! जब तू दर्शनशास्त्र पढ़ रहा था, तब तुझे मालूम था कि हेय क्या है? उपादेय क्या है ? और जब तू छल से पैसा कमाता है, तब तुझे मालूम है कि तूने सही नहीं किया है। आज तू ७० साल की उम्र में कमा रहा है, वह तुझे मालूम है, कि मैं जो कमा रहा हूँ, उसे भोग नहीं पाऊँगा । क्योंकि मेरी पर्याय अल्प है, द्रव्य बहुत है । फिर भी, जानने के बाद भी स्वच्छ दृष्टि क्यों नहीं बन रही है ? छोड़ क्यों नहीं देता ? क्यों विषयों में परिणति जाती है ? उस समय तू अज्ञानी होता है क्या ? अज्ञानी नहीं होता। तो ज्ञानी होता क्या ? ज्ञानी नहीं था । तो विषयों के भोग कैसे किये ? और ज्ञानी था तो विषयों में डूबा क्यों ? बोलो अज्ञानी था तो खोदा कैसे ? और ज्ञानी था, तो डूबा कैसे ? तू जानकर अज्ञानी था, जान- जानकर अज्ञानी है। पक्के अज्ञानी हो । अज्ञानता का कारण तेरा ज्ञान ही है। जो दुनियाँ का ज्ञान लाद-लादके रख लिया न, वही तुझे अज्ञानी बनाये है। तुझे सब का ज्ञान है । क्या-क्या करना चाहिए? उसका ज्ञान है। इसी ने तुझे अज्ञानी बना दिया । मुमुक्षु ! जब तूने किसी की कन्या को नहीं जाना था, तब तेरा अब्रह्म भाव नहीं था । जिस दिन तूने किसी की कन्या को जाना, उस ज्ञान ने ही तुझे अज्ञानी बनाया । चिन्तन करो, हृदय को निहारो । क्यों ? आप बहुत बड़े ज्ञानी हो, परन्तु तेरा ज्ञान ही तुझे अज्ञानी बनाये है। इतनी विवेक / बुद्धि न होती, तो वकील क्यों काला कोट पहनता ? तेरे ज्ञान ने ही तुझे काला कोट पहनाया है। तूने ज्ञान से काला कोट पहना है, तो काली कमाई करके हृदय को काला किया है। आज शांति से चिन्तन करो। जितना काला लेकर आया हूँ, ये ज्ञानभाव से लाया हूँ | और गलत करके लाया हूँ, अज्ञानभाव से नहीं लाया हूँ । सत्यार्थ बताऊँ आपको जिनवाणी के रहस्य बताये नहीं जाते हैं। आपको जानने के लिए समय ही नहीं है, कि कैसे यहाँ भटकतेभटकते आये हैं । व्यक्ति की दृष्टि अर्थ की ओर बहुत बढ़ चुकी है। अर्थ को छोड़कर मैं अनुभव कर रहा हूँ । जो अर्थ को छोड़ भी देते हैं, वे भी अर्थ को पकड़ नहीं पाये, फिर उसी अर्थ की ओर दौड़े। तत्त्वार्थ यानी तत्त्वभूत जो अर्थ है, उसके लिए मुनि बनना पड़ता है। पर उस अर्थ को समझ नहीं पाये, घुमा-फिरा कर, रूप बदलकर उसी अर्थ में आ जाता है। इस जीव ने जान लिया, परन्तु शब्दों में जाना । परमाणु होता है, परन्तु आँखों से दिखता नहीं है। दो प्रकार के परमाणु हैं, द्रव्य परमाणु और भाव परमाणु । तीसरा परमाणु होता है, पुद्गल परमाणु । आपने 'पंचास्तिकाय' ग्रन्थ में पढ़ा है द्रव्यपरमाणु व भावपरमाणु । जो निजस्वार्थानुभूति व निजस्वात्मानुभूति है, वह भाव - परमाणु है । जो व्यंजनानुभूति है, वह द्रव्य-परमाणु है । ध्यान दो भाव- परमाणु द्रव्य-परमाणु को नहीं पा पाया । ये पुद्गल परमाणु की चर्चा नहीं समझना । यहाँ आत्मा को ही परमाणु की संज्ञा दी जा रही है। जो शुद्धात्मतत्त्व है, वह निश्चय से भावपरमाणु है । भाव- परमाणु को जीव नहीं पा पाता, तो पुद्गल पिण्डों में फिर से खड़ा हो जाता है। इसमें दोष किसका ? विश्वास रखना, दोष आपके पुरुषार्थ का ही है । इस पेन का रंग किसी को काला, किसी को नीला दिख रहा है। जितनी दूरियाँ बढ़ती जाती हैं, विषयवस्तु का ज्ञान घटता जाता है। हमारे वर्द्धमान को गये ढाई हजार वर्ष हो गये। आचार्य विद्यानंद स्वामी ने ‘अष्टसहस्री' ग्रन्थ लिखा, वे आचार्य ' श्लोक - वार्तिक' ग्रन्थ में कह रहे हैं, कि खुली आँखों से, चश्मा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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