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________________ ११२ __ समय देशना - हिन्दी स्वाद व रोटी के स्वाद में अन्तर है। तन के वेदन में व चैतन्य के वेदन में इतना ही अन्तर है, जितना कि भोजन और पत्तल में है। पत्तल स्वाद-विहीन नहीं है, पत्तल में भी स्वाद है। नहीं मानो तो गाय से पूछो। पत्तल स्वादविहीन नहीं है, पर उसमें वह स्वाद नहीं है जो भोजन में है। अगर वही स्वाद है, तो भोजन क्यों बरबाद करते? पत्तल ही खाना चाहिए। भोगों में भी स्वाद है, परन्तु योगों में परम स्वाद है। अगर दोनों में स्वाद न होता, तो गाय पत्तल क्यों चबा रही होती। अगर योगों में स्वाद न होता, तो योगी, शुद्धात्मा के व्यंजन को क्यों चखते? योगों में इतना गंभीर स्वाद है, कि कभी-कभी पत्तल पर रखा भोजन फेक देती है, और पत्तल चबाती है। व्यंजन के स्वाद को जाननेवाले भोजन को ही उठाते हैं और पत्तल को फेकते हैं। अब बताओ कि आप क्या हो? पर कभी-कभी भोजन के साथ पत्तल भी टूटकर आ जाती है । तो जिव्हा भी समझदार है, पत्तल को बाहर निकाल देती है। ऐसे ही वीतराग भेदविज्ञानी योगी को किंचित भी तन का राग आता है, तो भेदविज्ञान की जीभ से अलग कर देता है, वह स्वाद व्यंजन मात्र का ही लेता है। यत्र काये मुने: प्रेम, तत: प्रच्याव्य देहिनम्।। बुद्धया तदुत्तमे काये, योजयेत्प्रेम नश्यति ॥४०||समाधितंत्र।। जब योगी को किंचित भी शरीर में प्रेम आ जाये, उस समय स्वभूत आत्म पद की बात करता है। राग भी तपस्वी के मन में आ जाये, उस क्षण स्वस्थ आत्मा में स्वस्थ आत्मा ही शुद्धात्मा है। स्वस्थ आत्मा यानी शुद्धात्मा। आप सभी अस्वस्थ आत्मा हो। पर पत्तल में इतना रस आ रहा है कि भोजन पर दृष्टि जा नहीं रही है। इसलिए मैं अभी नहीं कह पाऊँगा कि पत्तल के साथ भोजन का स्वाद चख रहे हो। पत्तल मुख में आ जाये तो निकाल दो। तब तो समझ में आता है कि पत्तल आ गई थी, उसे निकाल दिया, भोजन का स्वाद चख रहा था । मुनि के मन में प्रेम उत्पन्न हो जाये, वह स्वस्थ आत्मा है । लेकिन भूल क्या कर रहे हैं ? पत्तल को चबाते-चबाते इतना मस्त हो चुका है, कि उसके पास भ्रम नाम की कोई वस्तु ही नहीं बची। वो उसे भ्रम (पत्तल) मानता ही नहीं है। वह अपना भोजन मानता है। भ्रम उसे कहे, जिसे किंचित मालूम हो कि द्रव्य है । भ्रम एक में होता ही नहीं है, दो में होता है । जो दूसरों को जानता ही नहीं है, वह अज्ञानी है । भ्रम और अज्ञानी में अन्तर है। भ्रम तो दो के ज्ञान में चलता है। यह है, कि यह है ? लेकिन जिसने दो को जाना ही नहीं है, वह एक-से अज्ञानी हैं। जिसने आत्मद्रव्य को जाना ही नहीं है, ऐसा बहिरात्मा देह आदिक में आत्मबुद्धि को मान बैठा है। वह भ्रम में नहीं है, वह परिपूर्ण अज्ञान में है । जंगल में निवास करनेवाले पशु-पक्षी ऐसे भी हैं, जिन्होंने कभी पूड़ी को नहीं देखा । वे जंगल के पत्तों में ही, घास में ही सर्वस्व मानते हैं। वे नगर में कभी आते ही नहीं। नगर में निवास करनेवाले पशु घास को भी जानते हैं, और भोजन को भी जानते हैं, पर जंगल में रहनेवाले ने भोजन देखा ही नहीं। हे ज्ञानी ! जिसने मिथ्यात्व के दलदल में फंसे रहने पर, कभी सम्यक्त्व नगर की ओर झाँक कर ही नहीं देखा, वे सूखे पत्तों में ही सबकुछ मान बैठे हैं, उनको अन्य कुछ मालूम ही नहीं है। आपको यथार्थ बताऊँ जो जंगल में रहनेवाले जानवर हैं, उनके सामने शुद्ध घी की पुडी भी कोई फेंक दे, तो वे खाते नहीं हैं, क्योंकि उनको वेदन ही नहीं होता। जंगल में आदिवासी रहते हैं। उनको एक बार ज्वार की रोटी पर साग रख कर दी । उन्होंने साग को खा लिया, पर रोटी को फेंक दिया, क्योंकि वह रोटी को जानता नहीं था । बताओ रोटी में रोटीपना था, कि नहीं? रोटी में रोटीपना त्रैकालिक था, पर तेरे ज्ञान में रोटीपना नहीं है। इसी प्रकार, शुद्धात्मा में शुद्धात्मपना त्रैकालिक है, पर क्या करूँ? जिसने ऊपर की साग-साग देखी है, पर्याय को देखा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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