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________________ समय देशना - हिन्दी ११० ज्ञानी ! वह सिद्वांत कैसा था, जो एकान्त में पेट भरकर आ गया ? ये था मात्र शुष्क ज्ञान । क्योंकि इसने सम्पूर्ण श्रुतज्ञान को भोगवृत्ति में लगाया है और दूसरे ने ज्ञान को योगवृत्ति में लगाया है। दस के नोट को एक मंदिर में दान कर सकता था, पर वह मदिरालय से बॉटल लेकर आ गया। उसमें नोट का क्या दोष ? नोट का जैसा उपयोग किया, वैसा मिल गया । ज्ञान का क्या दोष? परणति का क्या दोष ? तेरी भावनाओं का दोष है। ज्ञान तुझे मिल गया था, उसे तूने भोग में लगाया है और एक ने ज्ञान को निज में लगाया है। आज घर जाकर निहारना कि हम अपने ज्ञान का उपयोग कैसे कर रहे हैं। जीते-जी जीना है, कि मरते-मरते ? अरे ! जीते-जी, जी लो। पर्याय के साठ साल निकल गये, पर जीते-जी, नहीं जी पाया। अमरबेल की तरह नहीं जीना। जिस वृक्ष पर चढ़ जाये, उसे सुखा देती है और स्वयं हरी-भरी रहती है। कुछ अज्ञानी ऐसे होते हैं, जो पर के जीवन को बरबाद करके जीते हैं। यदि जीना है तो ऐसे जीना जैसे आम का वृक्ष जीता है। स्वयं भी जीता है और कोई पक्षी घोंसला बना ले तो उसको भी जीने देता है। जीवन को नहीं खोता है, दूसरे के जीवन को सहारा देता है। ऐसा जीवन जियो कि तुम दूसरे को भी जीने दो। यही तो महावीर का संदेश है। जियो और जीने दो। ॥ भगवान् महावीर स्वामी की जय ॥ gaa ववहारोऽभूयत्थो भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणओ। भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो ॥ ११ स.सा. ॥ ज्ञानियो ! तत्त्व का शाब्दिक ज्ञान अनेकानेक जीवों को है, लेकिन तत्त्वदृष्टि का होना कठिन है। शब्दों से वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन कर देना, इसका अर्थ समयसार का अनुभव नहीं है। समयसार की अनुभूति न करने वाला अनुभव कर सकता है। कहनेवाला अनुभव शून्य भी हो सकता है। किसी को मिठाई खिलाई है, वह कह नहीं पाता, परन्तु अनुभव है। और एक व्यक्ति ने मिठाई को खाया नहीं है, तब उसकी मिठास शाब्दिक तो हो सकती है, पर मिठाई का अनुभव नहीं होता है। तत्त्वबोध शाब्दिक नहीं, अनुभवगम्य है। मैं ही अनुभावित हूँ। जो ध्रुव शुद्धात्मा का अनुभव परिणाम है, वह मेरे में ही है, अनुभावक में ही हूँ। मैं ही वह व्यक्ति हूँ जो सेवन कर रहा हूँ | मैं ही वह द्रव्य हूँ, जो अनुभव योग्य है । मैं ही वह पुरुष हूँ, जो अनुभवकर्ता है।जो भिन्न में अभिन्न का वेदन है, वह समयसार नहीं है। जो अभिन्न में अभिन्न का अनुभवपना है, वह समयसार है। सत्यार्थदृष्टि, भूतार्थदृष्टि का व्याख्यान आज कर रहे है । ग्यारहवीं गाथा में सम्यग्दृष्टि आत्मा, सत्यार्थदृष्टि आत्मा, समीचीन-दृष्टि आत्मा, वह कौन-सी आत्मा है, इस बात को यहाँ कह रहे हैं। सम्हल कर सुनना है, क्योंकि जो विषय को नहीं जानता, वह अपने आप में भ्रमित हो सकता है । यहाँ आचार्य कुन्दकुन्द देव निश्चय को ही भूतार्थ कहना चाहते हैं । विभाव अभूतार्थ है। जो उस निश्चय भूतार्थ को स्वीकारता है, वह सम्यग्दृष्टि है। आप भी सभी के मन के विषय को समझना । क्योंकि जिसका अनादि से सेवन किया हो, उसका उस पर राग होता है। जरा-भी निश्चय की प्रधानता से कथन हुआ तो जीव घबड़ाने लगता है, कि व्यवहार का लोप हो जायेगा । लोप किसी का होता ही नहीं है। विभाव है, था, रहेगा। लेकिन सत्यार्थ नहीं है। एक जीव की अपेक्षा कथन नहीं किया, सामान्य अपेक्षा कथन है। मिथ्यात्व है, था, रहेगा । क्योंकि मिथ्यात्व न होता, तो आप पंचमकाल में न होते । मिथ्यात्व नहीं रहेगा, तो संसार का लोप हो For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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