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__ समय देशना - हिन्दी
१०६ मान लो कि अब थोड़ा जीते-जी जीने लग जाओ तो अच्छा होगा। इस प्रज्ञा को मस्तिष्क में लाओ, सिर पर मत ले जाओ। प्रज्ञा जब चोटी पर पहुँच जाती है, तो फिर किसी को नहीं देखती है। प्रज्ञा मस्तिष्क में रहती है तो विवेक दिखता है। जीते-जीते जीयो । अभी जो जीवन चल रहा है वह मरते-मरते चल रहा है। क्यों? करते-करते बैठे हो, चल रहे हो। ज्ञानी ! अकृत्वभाव पर दृष्टि नहीं है, यही तो मरते-मरते जी रहे हो। जो चिद्रवरूप, भगवत् स्वरूप अकृत्वभाव है, उस पर दृष्टि ही नहीं है। पर्याय-की-पर्याय नष्ट हो रही है। शतांश भी तूने पर्याय के अकृत्वभाव पर दृष्टि दे दी तो, विश्वास रखना, मुक्ति हो जायेगी। जगत मरतेमरते जी रहा है । मैं तो देखता रहता हूँ। देखो मोह की दशा, ये समझ रहा है, कि मैं बहुत अच्छा काम कर रहा हूँ। अरे, वह मरते-मरते जी रहा है। समझो कि कोई कमजोर था, आपने उसको गाली दे दी और खुश हो रहे हो। आपको मालूम है कि वह क्या बिगाड़ेगा? लेकिन बिगाड़ने वाले ने तो बिगाड़ ही दिया है। गाली बुरी वस्तु है। आपके मुख से बुरी वस्तु निकली, तो मुँह बिगड़ा कि नहीं? पहले बिगाड़ते हो, फिर कर्म सुन रहा है कि तुमने क्या किया।
आप शुरू से ऐसे नहीं थे। छोटे थे, तो तुम्हारी माँ ने तीन चके की गाड़ी चलाने को दी थी। बेटे से माँ कह रही थी, तुम चलना नहीं जानते हो, तीन चके की गाड़ी को पकड़ लो और चलो। पर ध्यान रखना, तीन चके की गाड़ी पकड़कर चलता है, तो चलना सीख लेता है, कहीं उस तीन चके की गाड़ी की धुरी पर पैर रख दिया, तो गिर जाता है। ऐसे ही भगवती जिनेन्द्रवाणी माँ सरस्वती कह रही है, कि सम्यक्दर्शन-ज्ञानचारित्र तीन चके की गाड़ी पर चल।
वस्तु की स्वतंत्रता को समझो। जीना है तो जीते-जी, जीयो । जितने भी निषेक हैं, प्रत्येक निषेक पर ध्यान रखो, आज से। संयम के साथ जो जीता है, वह जीते-जी, जीता है। असंयम के साथ जो जीता है, वह मरते-मरते, जीता है। इसलिए आप संयमी के पास भी जायें, तो उन्हें ये याद न दिलायें कि स्वास्थ्य ठीक है न, क्यों? तूने आत्मलीन योगी को शरीर में रख दिया। पूछना था तो यह पूछता, कि रत्नत्रय की साधना विशुद्ध है न? असंयम में गया भी हो या योगी, तो रत्नत्रय को सुनकर जागृत हो जायेगा- अरे ! मेरी पहचान तन से नहीं है, मेरी पहचान संयम से है। अपनी पहचान बनाओ । संयमी का शरीर तो जनकजननी के निमित्त से बन सकता है, परन्त संयम जनक-जननी से नहीं बना। उनके पास जाना तो र की पूछना । द्रव्यश्रुत भावश्रुत नहीं बनता है । बोलते रहोगे, घूमते रहोगे, पर घूमना नहीं मिटेगा । शब्दों के जाल को बिखेरते रहोगे । भवातीत तभी होंगे, जब भावश्रुत बनेगा। जो भावश्रुत ज्ञान है, वह आत्मभूत है।
जो शुद्धात्मा को जानते हैं, वह निश्चय श्रुतकेवली होते हैं । जो शुद्धात्मा को नहीं भाता, नहीं समझता, नहीं पहचानता, बाहरी विषय में द्रव्यश्रुत को ही जानता है, तो वह भावश्रुत को नहीं जानता। भाई के बेटे को भी तू बेटा कहता है, अपने बेटे को भी बेटा कहता है। दोनों बेटों की अनुभूति समान है क्या? भाई का बेटा तेरे कंठ का है, निज का बेटा तेरी पत्नी के पेट का है। ऐसे ही, कागजों का श्रुत, भाई का बेटा है, और स्वानुभूति का श्रुत, स्वयं का संस्थान है। ये कागजों के सुख ने स्वानुभूति खो दी है । संवेदनायें नष्ट हो गईं। ज्ञानी शुष्क होते नजर आ रहे हैं। ऐसे ज्ञानियों को भीतर का ज्ञान नहीं है। यह पहचान तब होती है, जब आप तीर्थयात्रा में व्यवस्था में रहते हो, तो चुपचाप से अलग से खा आते हो। उससे श्रेष्ठ किसान है, जो मेढ़ पर बैठकर भोजन करता है, तब जो भी निकलता है, उससे कहता है - आओ, कलेवा कर लो । क्यों,
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