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________________ १०६ समय देशना - हिन्दी कण-कण स्वतंत्र है, प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है, प्रत्येक द्रव्य की परिणति स्वतंत्र है, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वतंत्र है। बंधन कहाँ है ? तू जिस परिवार के राग में जी रहा है, वह भी अपने भाग्य से जी रहा है। क्या व्यवस्था है, तू ही अव्यवस्थित है । व्यवस्था प्रत्येक द्रव्य की स्वतंत्र है। मनुष्य ही परिणामों में अव्यवस्थित है। सभी द्रव्य व्यवस्थित हैं।ये काले बाल सफेद हो गये किसने किये? समय ने प्रकति ने। जब आप बालों को व्यवस्थित नहीं कर पाये, तो बालकों को क्या व्यवस्थित कर पाओगे? वे अपने आप ही व्यवस्थित रहेंगे । तू राग का ही कर्ता है, किसी की व्यवस्था का कर्त्ता नहीं है । यह ध्रुव सत्य है। यदि तू बालकों की व्यवस्था करता है, तो वही बालक बड़ा होकर कहता है कि अलग कर दो। आप फिर कैसा देखते हो ? फिर कौन किसकी व्यवस्था देखता है ? जब अलग होने की बात आ गई, तो तुम दोनों स्वतंत्र हो गये और पहले से ही स्वतंत्र मान लेता, तो बालकों का पालक नहीं बनता। जन्म व्यवस्थित है, मृत्यु व्यवस्थित है, योग व्यवस्थित है; पर तेरी परिणति ही अव्यवस्थित है। जिसको मृत्यु से भय समाप्त हो जाता है, वह या तो साधु बनेगा, या डाकू बनेगा। दोनों लुटेरे हैं, एक धन को लूटता है, दूसरा मन को लूटता है। तुम न लुटो, न पिटो। तुम लौट जाओ शिवधाम पर, तो न लुटना पड़ेगा, न पिटना पड़ेगा। तुम स्वयं साम्राज्य पद को प्राप्त करोगे । यह तत्त्वबोध किसी-न-किसी पर्याय में तो समझ में आयेगा । यह व्यर्थ नहीं जाता। तुम कितने अभागे हो। तुम्हारे जनक-जननी ने कितना अच्छा नाम रखा, फिर भी पर की कन्या तुम्हें, 'ये, वे' बोलती है तब भी तुम्हें शर्म नहीं आती। आप पत्नि का नाम लेते हो, क्योंकि दास हो। वह नहीं लेती न । कह देना कि आज मत करना 'ये, वे' | मैं 'ये, वे' से रहित शुद्धात्मस्वरूप हूँ। परम तत्त्व की ओर लक्ष्यपात करो। । भगवान् महावीर स्वामी की जय ।। qua आचार्य भगवन् कुन्द-कुन्द स्वामी 'समयसार' ग्रन्थ में समझा रहे हैं। श्रुत की महिमा अलौकिक है। उस अनुपम स्वरूप को सुनना है, स्वानुभूति के बल पर, यह अध्यात्म-विद्या है, इसलिए गृहस्थों के बीच में नहीं होती, क्योंकि, इनको शब्द सुनाई पड़ते हैं, पर अर्थ की अनुभूति नहीं होती है । अर्थ की अनुभूति का न होना स्वात्मानुभूति से दूर रखती है, और जहाँ स्वात्मानुभूति होगी, वहाँ अर्थ का राग समाप्त हो जाता है। यह समयसार ग्रन्थ कह रहा है कि समय है और समय पर समय है। समय पर 'समय' को समझ लिया होता, तो पंचमकाल में न बैठा होता । जैसी भूल पूर्व में की है, ऐसी भूल चल रही है जो भूल जीव ने रागवश, क्लेशवश की है। उसको न सुधारने से श्रुत के समीप पहुँचा, द्रव्यश्रुत को समझा, द्रव्य-शब्दों को जाना; पर भावश्रुत को नहीं पा सका। "यस्मात् क्रिया प्रतिफलंति न भावशून्या ।"३८ कल्याण मंदिर स्त्रोत ॥ जो क्रिया भावशून्य है, वह क्रिया कभी फलित नहीं होती। समय भी गया, आयु भी गई, अर्थ भी गया। भाव के अभाव में ध्रौव्य भी गया। भावना बन जाती एक बार, तो इतना सबकुछ न जाता। भवातीत हो जाता। लेकिन भाव के अभाव में सबकुछ किया, परन्तु हाथ में कुछ भी नहीं आया। भवातीत होना है, तो अतीत की भावना को संयोगीभाव को, विभाव को, अतीत करो, विचार करो राग की लालिमा ने दो पांडवों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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