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समय देशना - हिन्दी
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राग में चला गया तो, विश्वास रखना, मुक्ति का आनंद नहीं आयेगा, खुला होना चाहिए। अभी आप खुले होकर सुन रहे हो। यदि आपसे कह दें कि एक घंटे आपको बैठना ही पड़ेगा, तो आ गया टेंशन कि मुझे बाँध दिया । आप विश्वास मानो, जितना अध्यात्म से विपर्यास हुआ है, उतना सिद्धांत से कभी नहीं हुआ है। जितने अनर्थ हुए हैं, जितने सम्प्रदाय बने, सब अध्यात्म के नाम पर बने हैं। क्यों ? अध्यात्म की गहराइयों को नहीं समझ पाया और जो आत्म-स्वतंत्रता की बात की जा रही थी, वहाँ संयम में स्वच्छन्द हो गया । इसलिए वह समझ नहीं पाया, भटक गया । हे ज्ञानी ! समुद्र स्वतंत्र है, गहरा है, परन्तु स्वच्छन्द नहीं है । समुद्र स्वच्छन्द हो जायेगा, तो पता नहीं कितनों का घात हो जायेगा । हे योगीश्वर ! श्रमण संस्कृति में आपके नाम के आगे तालाब नहीं लगा, नाली नहीं लगी, आपके नाम के साथ सागर लगा है। जो कितना भी भर जाये, परन्तु अपनी सीमा का उल्लंघन नहीं करता । समुद्र अपनी सीमा में रहता है और पानी से भरा होता है, पर जमीन में मणियों को, मोती को सुरक्षित रखता है। हे योगीश्वर ! संयम के नीर से भरे रहना, चारित्र के तटों पर चलते रहना; परन्तु रत्नत्रय के मणियों को सुरक्षित रखना, यह सागर है। निर्बंधता ही सुख है । एक क्षण को बालक अवस्था को देखो । जैनदर्शन में श्रमण के लिये किसी शब्द का प्रयोग किया है, तो उसका नाम 'यथाजात' है । यथाजात बालक अनंत में जीता है, सीमा में नहीं होता है। जैसी उम्र बढ़ी, कि कपड़ा आ गया कमर पर, तब यथाजातपने का विनाश हो गया; क्योंकि विकारों के बंधन में आ चुका है। ये धागे नहीं, तुम्हारे कमर पर ये प्रमाणपत्र हैं, कि ये वसन वासना पर चढ़े हैं। वासना उतर गई होती, तो वसन अभी खुल गये होते । यथाजात स्वरूप से कोई विरहित है, तो वह वसनों में लिप्त है।
अनादि अविद्या के संस्कार के वशीभूत हुआ जीव जैसे घर में कुटते पिटते व्यक्ति को कुटा-पिटा नहीं मानता, ऐसे ही अनादि से जिस बंधन में लिप्त हो, उसको बंधन कहना भूल गये हो । एक जगह मैंने पढ़ा, बहुत सारे ऊँटों को उन्हें बाँधना था, तो एक ऊँट के लिए खूँटा नहीं बचा, तो उसने क्या किया कि ऐसे
खूँटा ठोक दिया, तो ऊँट बैठ गया। प्रातः हुआ, सभी को खोल दिया, पर जिसे बाँधा ही नहीं था, उसे नहीं खोला, तो वह ऊँट वहीं बैठा रहा। फिर उसने सोचा कि ये रस्सी से नहीं बंधा, बुद्धि से बंधा है । वही प्रक्रिया उसके साथ की गई तो फिर वह खड़ा हो गया। आप सोचो, आप बंधे तो नहीं हो, पर बंधन में कौन किसको बाँधे है, कौन किसको पकड़े है ? मेरा मन ही पकड़े है।
कण-कण स्वतंत्र है, प्रत्येक वस्तु स्वतंत्र है, प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र है, मात्र मोह की रस्सी में बंधा हुआ है, बाकी बंधा नहीं है। आपसे अच्छा बैल है। बैल रस्सी से बंधा होता है, पर के बंधन में है, इसलिए वह गौशाला में खड़ा होता है। लेकिन जब भी रस्सी टूट जाये, तो वह दौड़ ही जाता है। पर आप कैसे ज्ञानी जीव हैं ? पूँछ भी नहीं है, सींग भी नहीं हैं, नकेल भी नहीं है, तब भी आप गौशाला की ओर जानेवाले हैं। कितने स्वतंत्र हैं, पर आपको अपनी स्वतंत्रता का भान ही नहीं है। प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। आप सम्मेदशिखर जाते हो, वहाँ आपको अच्छा लगता है, फिर भी आप उसे छोड़कर आ जाते हो, क्योंकि श्रद्धा घर में है । यदि श्रद्धा में किंचित भी उत्कृष्टता होती, तो तू घर नहीं आता । वे ध्रुव टंकोत्कीर्ण परम पारणामिक निजानंद में लवलीन परम योगीश्वर जब यथाजात स्वरूप को निहारते तब सम्पूर्ण बंधनों से दूर होते हैं ।
निर्बन्ध क्यों नहीं हो पा रहे ? बंधा कोई किसी से है नहीं, परन्तु राग की गाँठ प्रबल है, जो छूटती नहीं है । मोह परद्रव्य है, कर्म भी परद्रव्य है। पर मोह ने तुझे बाँधकर नहीं रखा, तू ही मोह से बँधा है। दूसरों को दोष देना, निमित्तों को दोष देना आपकी आदत में आ गया है। उपादान को संभालने का पुरुषार्थ करो ।
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