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समय देशना - हिन्दी
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को सिद्धालय नहीं जाने दिया । तपस्या बराबर चल रही थी, पर भाई के राग में इतना ही सोचा था, कि मैं तो सहन कर रहा हूँ, पर मेरे भाई का क्या होगा। उस राग में मालूम चला कि वह तो खड़े रह गये और वे मोक्ष चले गये। ध्रुव सत्य है, जब अध्यात्म विद्या में प्रवेश होगा, फिर जगत के राग की लालिमा में नहीं आ पाओगे । मिट्टी गीली है तो चिपकेगी और सूख जाये तो झर जाती है। जब तक परभावों में राग की आर्द्रता है, तब तक चिपकोगे - ही - चिपकोगे। आर्द्रता समाप्त हो जाये, तो झरना प्रारंभ हो जायेगा। पर झरने बनाये बैठे हो, तो झरोगे कैसे ? ध्यान दो लोगों में झरने फूट रहे हैं, राग के, कर्म के झरने झर रहे हैं, वे झरनेवाले नहीं हैं। जब -तक झरने झरेंगे, तबतक मिट्टी गीली होती रहेगी। पहले झरने को बंद करो। जब तक राग की आर्द्रता है, तब-तक कर्म झरनेवाले नहीं हैं । पुरुषार्थ प्रबल हो, खेत में काली मिट्टी हो, पानी गिर जाये, मिट्टी चिपक जाये तो जितना छुटाओगे उतनी चिपकती है। जब तक हृदय में विषय- कषाय की काली मिट्टी चिपकी है, तब-तक आप उसमें चिपकते रहोगे । कितना भी तत्त्वज्ञान के पानी से धो लेना, पर आपके पैर साफ नहीं होंगे। सूखी भूमि पर चलना होगा, यदि पैरों को स्वच्छ करना चाहते हो तो। गीली भूमि पर सदा कीचड़ से युक्त रहोगे ।
धन्य हैं श्रुतकेवली भगवन्त, जो श्रुतसरिता में अवगाहन करके कर्मो की काली मिट्टी को जड़ से समाप्त कर रहे हैं। इस बात को आचार्य जयसेन स्वामी लिख रहे हैं। जो द्वादशांग श्रुत को परिपूर्ण जानते हैं, वे श्रुतकेवली कहलाते हैं । वे जानते ही नहीं हैं, अनुभव भी करते हैं । अनुभवन ही नहीं करते, व आचरण भी करते हैं । वे व्यवहार- - श्रुतकेवली हैं। ऐसा सर्वज्ञदेव ने कहा है । द्रव्यश्रुत के आधार से उत्पन्न हुई है जोजो जिनवाणी आप पढ़ रहे हो ।
शास्त्र तो पढ़ना, पर दूसरे को सताने के लिए नहीं पढ़ना । कुछ लोग शास्त्र का उपयोग शस्त्र के रूप में कर रहे हैं। जब कुछ नहीं जानते थे तो विनयवंत थे, समाज में मिलकर रहते थे। जबसे शास्त्र पढ़ने लगे, तो पहचान बनाने में लग गये, पहचान को भूल गये । आप न पढ़ते तो अच्छे थे। शास्त्र शास्त्र है, शस्त्र नहीं है । ऐसे ज्ञानी बन गये, जो कहने लगे कि तुम क्या जानो । अरे ! वह इतना जानता है कि वह किसी को सताता नहीं है। आपने किस बात को जान लिया, कि आप परेशान करने लग गये। विश्वास रखो अज्ञानियों से ज्यादा ज्ञानियों से सताये जाते हैं। अज्ञानी तन को पीड़ित करता है, ज्ञानी मन को पीड़ित करता है। पर वह ज्ञानी नहीं होता है। ज्ञानी पुरुष का तो तन व मन दोनों शीतल होते हैं । पर जिसने शास्त्रज्ञान को अपने जीवन का अस्त्र बना लिया हो, उनसे जगत पीड़ित होता है। और जिसने शास्त्रज्ञान को भावश्रुत बनाया है, वह भविष्य में केवली होते हैं । शास्त्रज्ञान को, द्रव्यश्रुत को भावश्रुत बनाने का पुरुषार्थ तो करना, परन्तु द्रव्यश्रुत प्राप्त होते ही पर को पीड़ित करने का विचार कभी नहीं करना । क्योंकि अध्ययन करेगा, प्रज्ञा बढ़ेगी, तो सामान्य लोगों को अपने अनुसार चलाना चाहेगा ।
विश्वास रखना, पर को आदेशित करना सबसे बड़ी हिंसा है, क्योंकि कोई किसी की आज्ञा में रहना पसंद नहीं करता । आप आदेशित कर रहे हो, कोई मानना नहीं चाहता, पर आपने चार लोगों के बीच आदेशित कर दिया, तो तुम्हारे स्वाभिमान / अभिमान के पीछे आपकी बात को तो स्वीकारेगा, पर मन से रो रहा है। आचार्य परमेष्ठी को भी आचार्य पद का त्याग करना पड़ता है, तब उनकी संल्लेखना होती है । वे भी मुनिराजों को आदेशित करते हैं परन्तु उनको इतना ध्यान रहता है कि दूसरे कि स्वतंत्रता का घात न हो । यहाँ व्यवहार की बात मत छेड़ना, वस्तुस्वरूप को समझो, हिंसा है। पर की स्वतंत्रता का हनन क्यों कर रहे
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