________________
६६
समय देशना - हिन्दी से चौथे गुण स्थान में श्रुतकेवली सिद्ध करते है, थोड़ी बुद्धि लगाना । आचार्य कुन्द-कुन्द देव स्वयं निर्ग्रन्थ मुनि थे। परम वीतरागी, निर्ग्रन्थ योगीश्वर थे । उनको चतुर्थ गुणस्थान में श्रुतकेवली अभीष्ट होता तो वे अपने मंगलाचरण में यह न कहते “मिणमो सुदकेवली भणिदं'' । 'जैसा श्रुतकेवली भगवान् ने कहा है वैसा मैं कहता हूँ' ऐसा न कहकर यह कहते कि मैं श्रुतकेवली कहता हूँ, फिर इन गाथाओं का अर्थ क्या होगा? गाथाएँ परम सत्य हैं, उनको समीचीन रूप से लगाना आपका परम धर्म है। आप तो श्रुतकेवली की बात कर रहे हो, आगम तो अभव्य मिथ्यादृष्टि जीव को केवली मानता है। हे ज्ञानी ! जो अभव्य जीव है, उसके आठों ही कर्मों का बंध है। आत्मा के प्रदेशों में कर्मों के प्रदेशों का एक-मेक होना बंध है। अभव्य जीव के केवलज्ञानगुण शक्ति तो है, तभी तो उस पर आवरण है। अभव्य वह इसलिए है कि उसकी शक्ति कभी उद्घाटित नहीं होगी, केवलज्ञान शक्ति से वह सम्पन्न है । जो केवलज्ञान शक्ति से सम्पन्न है, उसके अंदर केवलत्व गुण भी है। श्रुतज्ञातृत्व भी है, क्योंकि आठों कर्म हैं, परन्तु आवरण है। हुआ शक्ति कथन । पर अभिव्यक्ति कथन करोगे तो जिस गुणस्थान में जो जैसा है, वैसा ही कहना । शक्ति-अपेक्षा निगोदिया जीव भी भगवत् स्वरूप ही है। लेकिन निगोद अवस्था में भगवत्-स्वरूप नहीं दिखेगा । यही भ्रम है। क्रिया अभगवान् की है, चर्चाएँ भगवान् की हैं, परिणति मनुष्य की चल रही है। इसलिए दो गाथाओं को गहरे में समझना है।
यह तो व्यवहार की बात हो गई, अब समयसार की भाषा में सुनो। जितना व्यवहार समझाना था, बोल दिया, अब इस ग्रंथ की भाषा सुनो । हे ज्ञानी ! निर्णय करने के दिन अनंत हो गये, पर निर्णय नहीं कर पाया। निर्णय कर लिया होता, तो आज निश्चय में होता । निर्णय करते-करते पर्याय निकल गई, परन्तु परणति का निर्णय नहीं हो सका । परिणति का निर्णय हो जाता, तो आज इस पर्याय में तेरी गति न होती। 'करूँगा तत्त्व निर्णय' इतने शब्द बोलते-बोलते तूने पर्याय को ही नष्ट किया है। जगत में अज्ञानदशा की कैसी लीला है ? एक जीव कह रहा है निशा जी ! निशा आ गई है। जिससे तू कह रहा है, उसके पास भी नयन हैं। जिससे त कह रहा है कि रात्रि हो गई है. उसे भी दिखाई दे रहा है। त उस समय में भगवान का नाम ले लेता तो कर्मो की निर्जरा करता। 'ओ हो ! कैसी गर्मी है? अरे ! जिससे कह रहे हो, वह भी तो महसूस कर रहा है। समझ नहीं पा रहा हूँ कि शब्दों को कहकर पर्याय को नष्ट क्यों कर रहा है ? ऐसे ही आप अपनी आयुकर्म को देखें, कितनी आयु को आपने व्यर्थ के वचनालाप में समाप्त किया। अभी तू तत्त्व को नहीं जानता है। इसलिए लगता है, कि तेरी आयु के निषेक तुझे भाररूप लगते हैं। इन शब्दों को कहने में तू आयु को व्यर्थ कर रहा है। कितना समय व्यर्थ की बातों में नष्ट कर रहा है। तू कह रहा था, कि तुझे समय नही मिलता। अरे ! यही कहते समय तू समय नष्ट कर रहा है । जो जीव ऐसा कह रहा है, कि पंचमकाल में मोक्षमार्ग कैसे प्रशस्त होगा, इस शब्द को कहने में तूने समय निकाल दिया। जिसे सुसमय का भान नहीं है, उसे सुसमय का ज्ञान नहीं है। मैंने गमन किया, परन्तु गमन जिसके लिए किया था, उससे आगमन हो गया । पर, गमन दूसरी जगह हो गया । हे ज्ञानियो ! इस निर्ग्रन्थ दशा का सिद्धालय की ओर गमन था, इसमें कुभाव हो गये, तो अगवानी नरक की ओर हो गई। हे भाग्यवानो! तेरी अगवानी सिद्धालय में होने वाली थी, पर वह नरक की ओर हो गई। भवातीत होने के लिए निकले थे, परन्तु भव के अभिनंदन में लग गये, तो भवातीत नहीं हो पाये। यह बढ़ती संख्या सम्मानों की, वह आत्मा का अपमान है। पर क्या करे, राग उसे ही सम्मान समझ रहा है, जबकि वह रागी अपमान है। ये तो बताओ कि नीच गोत्र का आस्रव कैसे होता है ?
परात्मनिंदा प्रशंसे सद सद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य ।।त.सू.॥६/२५॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org