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________________ समय देशना - हिन्दी १०० परात्मनिंदा, पर के सद्गुणों को ढंकने और दोषों को प्रकट करने से नीचगोत्र का आस्रव होता है। अपने गुणों को प्रगट कर रहा है, अपने ही से स्वयं की प्रशंसा, पर तू जो स्वयं की प्रशंसा चाह रहा था और धीरे से कह रहा था, कि मेरा ध्यान रखना। इधर तिलक लग रहा था, उसी समय आयु का बंध हो गया, और तिर्यंच की पर्याय में पहुँच गया, सम्मान के पीछे तुम नालियों में घूम रहे हो । सम्मान हुआ कि, अपमान हुआ ? पर इसे आप स्वीकार करते कहाँ हो ? इस आत्मा के सम्मान के पीछे तुम कितनों का अपमान करते हो। जिसे तू शाल-श्रीफल का सम्मान कह रहा था, वह कषाय का तो सम्मान था, परन्तु आत्मा का अपमान है । किसी और को नहीं देखना स्वयं को देखकर चिन्तन करना कि कितना सत्य है। पर्याय का स । सम्मान आत्मा का सम्मान नहीं, अपमान है। जैसे आप यहाँ मधुर बोल लेते हो, वैसे ही घर में बोलने लग जाओ, तो घरघर के क्लेश समाप्त हो जायेगे। संक्षेप में कोई पूछे कि सम्मान क्या है? तो इतना ही कहना कि पर्याय के सम्मान में आत्मा का अपमान करना ही सम्मान है। और कुछ नहीं कहने का । पर क्या करूँ, एक वस्तु मिल जाती तो बहुत अच्छा होता। बताऊँ क्या ? मैं श्रुतज्ञान से परोक्षरूप से वस्तु को जान लेता हूँ, जैसे कि वाहनचालक होता है। गाड़ी में जो काँच लगाया है, वह क्यों लगाया है ? क्योंकि आँखें देख रही हैं सामने वाले को पर काँच देख रहा है पीछे वाले को। धन्य हो तेरा ज्ञान । ज्ञान कितना आगे निकल गया? ऐसे ही तेरी वर्तमान की पर्याय में एक काँच लगना चाहिए था, ताकि तू पीछे पर्याय छोड़कर आ गया है, वह तेरी नरक की पर्याय दिख जाये । समझ में आ जाये कि ठीक से चल । भूल यही हो गई, वह काँच होना चाहिए। बड़े-बड़े जहाजों में एक काँच होता है, उसका नाम दूरबीन है। दूरबीन आगे की बहुत दूर की पर्याय को जानती है। हे ज्ञानी ! तेरी पर्याय में दो द्रव्य होना बहुत अनिवार्य है, पीछे को देखनेवाला दर्पण, आगे को देखनेवाली दूरबीन । फिर तू देख लेगा कि आगे की पर्याय ऐसी होने वाली है। वर्तमान में सँभल जाओ। रोड बनानेवाले को मैंने देखा है। वह देखता रहता है, कि कहाँ तिरछा हो रहा है, कहाँ टेड़ा हो रहा है। परद्रव्यों को कैसे-कैसे सँभाल सँभाल कर करवाया है। एक बार अपने आत्मा का इंजीनियर बन जाता, तो आत्मा का कल्याण कर लेता। आपको वैसे तो भूत व भविष्य का ज्ञान है, पर मानते नहीं हो। ''बह्वारंभपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः" बहुत आरंभ-परिग्रह रखोगे तो नरक में जाओगे । आप स्वयं देख लो। "अल्पारंभपरिग्रहत्वं मानुषस्य ।'' आप मनुष्य हो, आपकी भूत की पर्याय जानता हूँ कि अल्प आरंभ, परिग्रह था, इसलिए आप मनुष्य हो। 'लात जाओ, धरत जाओ, मरत जाओ' -ऐसी धारणा चल रही है, तो भविष्य के तुम नारकी हो । तीन पर्याय आपको दिख रही है, भले ही आप न समझो। तीन पर्याय का ज्ञान है आपको । मायाचारी की थी न, इसीलिए स्त्रीपर्याय । पहले मनुष्य आयु का बंध किया था, आयु बंध के बाद मायाचारी की, इसलिए स्त्रीपर्याय मिली। बंध करने के बाद फिर बंध किया। बंध तो मनुष्यायु का ही किया था, फिर मधुर मायाचारी की, तो स्त्रीपर्याय मिल गई। कर्म किसी का सगा नहीं होता। वह सबके साथ रहता है, पर काम अपना ही करता है। कर्म हमारे अनुसार नहीं चल रहा, वह अपने अनुसार चला रहा है। व्यवहार कैसा है? उसका कथन करते हैं - ववहारोऽभूयत्थो देसिदो दु सुद्धणओ । भूथत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइि जीवो ॥११॥स.सा.॥ यहाँ निश्चय और व्यवहार का कथन है । गुणस्थान का नाम नहीं लिया तो भी सारे गुणस्थान को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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