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________________ ६८ समय देशना - हिन्दी का विपरीत ज्ञान करके तत्त्व को विपरीत नहीं कर पा रहा है, लेकिन इसकी श्रद्धा विपरीत हो रही है । तो तत्त्व मिथ्यात्व में नहीं जायेगा, व्यक्ति मिथ्यात्व में जा रहा है। जितने यहाँ धर्मात्मा विराजते हैं न, वे यह चिन्ता कभी न करें कि इनके द्वारा धर्म का नाश हो रहा है। यह अज्ञानता छोड़ दीजिए आप। आप धर्म के भेष में आकर धर्मरूप अनुसरण नहीं करोगे तो इससे धर्म का कुछ नहीं बिगड़ेगा, बिगाड़ आपका हो रहा है। यह उपचार कथन है, कि 'धर्म की हँसी मत करो। आपके द्वारा धर्मात्माओं की हँसी हो जायेगी, इसलिए ऐसा मत करो।' पर ध्रुव सत्य है, कि हँसी किसी की नहीं हो रही है; जो कर रहा है, उसी की हो रही है । निर्णय कीजिए, क्योंकि कण-कण स्वतंत्र है। सबसे बड़ा धर्म क्या है ? जो आपने धर्म मान लिया है, वह धर्म नहीं है। तो धर्म की मुद्रा है, धर्म की क्रिया है । धर्म तो वस्तु का स्वरूप है, और वह कण-कण स्वतंत्र है, तो हाय-हाय करना बन्द कर दो । प्रत्येक द्रव्य की स्वतंत्रता पर दृष्टिपात करो । त्रैकालिक स्वतंत्रता है, उसे आप परतन्त्र नहीं कर पायेंगे। श्रद्धान में विपर्यास करके निज को ही परतंत्र कर पाओगे, परन्तु पर को परतंत्र करने की आप में कोई सामर्थ्य नहीं है। समसयार है। नौवीं व दसवीं गाथा में आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी व्यवहार श्रुतकेवली और निश्चय श्रुतकेवली का व्याख्यान कर रहे हैं। जो तत्त्व को नहीं समझ पा रहे है, वे चतुर्थ गुणस्थान में ही श्रुतकेवली बन जाते हैं। तो एक विद्वान् ने पुस्तक में लिख ही दिया, आप मानोगे नहीं, लेकिन होते हैं। एक बार 'कर्म रहस्य' में जिनेन्द्रवर्णी ने भी लिख दिया कि चतुर्थ गुणस्थान में श्रुतकेवली होते हैं, जबकि आचार्य जयसेन स्वामी टीका में निषेध करने वाले हैं। 'व्यक्तित्व से, प्रभाव से, और व्यक्ति से प्रभावित नहीं होऊँगा', जीवन में यह पहला सूत्र बनाकर चलना, यदि कल्याण के मार्ग पर आओ तो। मोक्षमार्ग इनसे प्रभावित होने का नहीं है। मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र की एकता से प्रभावित होने का है । मुमुक्षु सम्यग्ज्ञान को जैसा कहा है, वैसा कथन करता है। कैसा अन्यूनमनतिरिक्तं, याथा तथ्यं विना च विपरीतात् । निःसन्देहं वेद य-दाहुस्तज्ज्ञान मागमिनः ॥४२शार.क.श्रा।। जैसा है, वैसा कहना । न्यूनता से रहित, अधिकता से रहित जो वस्तु का स्वरूप है, वैसा कथन करे, वह सम्यक्ज्ञानी है । सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वात्म उपलब्धि के ये तीन ही उपाय हैं, चौथा कोई नहीं है। तत्त्व का यथार्थ श्रद्धान सम्यक्दर्शन है और जो वस्तु जैसी है वैसी निर्णय करना सम्यग्ज्ञान है। और निज स्वरूप में लीन होना निश्चय सम्यक् चारित्र है और अट्ठाइस मूलगुणों का पालन करना ये व्यवहारचारित्र है । इन तीनों से तो प्रभावित होना, परन्तु व्यक्ति/व्यक्तित्व मात्र से प्रभावित होकर, आगम का विपर्यास मत कर लेना। क्योंकि सल्लेखना स्वीकार है, लेकिन विपरीतपना स्वीकार नहीं है। अपन श्रुतकेवली नहीं हैं, फिर भी कुन्द-कुन्द देव ने क्या कहा है - वंदित्तु सव्वसिद्धे, धुवमचलमणोवमं गई पत्ते । वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुयकेवली भणियं ॥१||समयसार।। यदि आचार्य कुन्द-कुन्द देव चतुर्थ गुणस्थान में श्रुतकेवली स्वीकारते होते, तो स्वयं क्यों लिखते, कि श्रुतकेवली ने जैसा कहा, वैसा मैं कहूँगा? फिर यही कहते कि मैं श्रुतकेवली कहता हूँ। इन दो गाथाओं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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