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(ब) केवली का लोकपूरण समुद्घात । 574- (अ) अरहंत पद हेतु आत्मस्थता का वातावरण ।
(ब) तीन शुक्लध्यानी वातावरण का पुरुषार्थ ।
(स) लोकपूरणी समुद्घात । 575- (अ) रत्नत्रयी सल्लेखी का दो शुक्लध्यानी वातावरण ।
(ब) तीन शुक्लध्यानों का वातावरण और पुरुषार्थ ।
(स) लोकपूरणी समुद्घात । 581- (अ) निश्चय-व्यवहार धर्मी दो शुक्लध्यानी वातावरण पंच परमेष्ठी आराधक का है।
(ब) चार शुक्लध्यानी वातावरण का पुरुषार्थी । (अ) रत्नत्रयी त्यागी संघस्थ प्रतिमाधारी है । चार अनुयोगों का शिक्षार्थी जंबूद्वीप में पंच परमेष्ठी आराधक का है । (ब) अरहंत पद प्राप्तकर्ता तीन शुक्लध्यानी वातावरण में/लोकपूरणी है । (अ) अस्पष्ट ।
(ब) चतुराधक पंचमगति हेतु दो शुक्लध्यानों का स्वामी सल्लेखी स्वसंयमी है । लोकपूरणी है । 584- (अ) चतुर्गति भ्रमण क्षय कर्ता दो धर्मध्यानी ऐलक संघस्थ प्रतिमाधारी होकर तप करते थे . (ब) पंचाचार पालते पंचमगति के साधक ने दो शुक्लध्यान घातिया कर्म नाश के द्वारा सिद्धत्व को पाने/लोकपूरणी
समुद्घात किया । 599- निकट भव्य ने अपने वातावरण को निश्चय धर्मी बना दो शुक्लध्यान प्राप्त करके संघाचार्य की तरह भवचक्र को पार
किया ।
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छोटी सीलें अस्पष्ट हैं614- इच्छा निरोधी स्वसंयमी तपस्वी मन को स्थिर करके पंचम गति की साधना करने वाला वैराग्य धारण करके सिद्धत्व की
प्राप्ति चौथे शुक्लध्यान को चतुराधन के द्वारा प्राप्त करता है। 615
सल्लेखी तपस्वी वैराग्य का वातावरण साधना हेतु स्वयं बनाता है । 616- सप्त तत्त्व के चिंतन से पंचम गति प्राप्त कराने वाला वैराग्य उपजता है ।
आत्मस्थता का साधक निश्चय और व्यवहार धर्मी होता है । 618- पंच परमेष्ठियों का आराधक पुरुषार्थी और वीतरागी होता है । 619- पुरुषार्थमय तीर्थकरत्व की प्राप्ति भवचक से पार कराने के लिए दूसरे शुक्लध्यान की प्राप्ति के बाद संभव होती है जो
रत्नत्रयी पंचाचार से एक "दूसरे धर्मध्यान का स्वामी" वस्त्रधारी त्यागी (पंचम गुणस्थान से) सप्त तत्त्व चिंतन द्वारा पंचम
गति की साधना के रूप कैवल्य/ केवल ज्ञान प्राप्ति के लिए करता है । 620- प्रतिमा धारण करके आत्मस्थ वैराग्य की भूमिका तीसरे धर्मध्यान से बना लेता है । 621- पंच परमेष्ठी आराधक. सल्लेखी. त्रिगुप्ति का वातावरण वैराग्यवान तपस्वी जैसा षट् द्रव्य चिंतन का बनाता है ।
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