SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 9
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अब "श्री महादेवन" जी की पाठन पद्धति से दाहिने से बाऐं पढ़कर तैयार किया है । इसे लिखते हुए लगता है कि इरावथम महादेवन जी पुरालिपि पाठन के विषय में पूर्ण रूप से दिशा" को सही नहीं समझ सके हैं। इस पुरालिपि पाठन की दिशा स्वतंत्र है और रहना चाहिए क्योंकि जीवन के घटना क्रम के अनुकूल ही इस लिपि के अक्षरों को वाचन किये जाने में अर्थ "सशक्त" होकर उभरता है । जीवन के अंत से घटना क्रम को जन्म तक उल्टा पहुंचाने में वह साहित्य अनेक स्थलों पर बेतुका और फीका पड़ जाता है । वास्तव में पुरातात्विक सैधव सीलों पर अंकित पुरुषार्थ" की कमान की दिशा और जीवन क्रम तथा मूल पशु के सामने की "ध्वजा" इस लिपि के पाठन की दिशा दर्शाती है. ऐसा मेरा विश्वास है । जो भी सत्य हो इसे पाठकों के हाथ में पहुंचाकर मैं अत्यंत संतुष्टि का अनुभवन करती हूँ कि अपने जीते जी मैं इसे पूर्णता दे सकी । यह अतिशय पूज्य "गुरुवर" के आशीष और किन्हीं अदृष्ट "देव" की सहायता से ही संभव हुआ है। जितने भी अब तक के पुरा अंकन मुझे दिखे हैं उनकी । जो एकमात्र अपने संकेतों के द्वारा मात्र जिनशासन की अभिव्यक्ति दर्शाते हैं- द्वादश अनुप्रेक्षा मुखरित होते - यहाँ प्रस्तुति की गई है के छंदों के ही अंश मानो "उत्तम देश, सुसंगति दुर्लभ श्रावक कुल पाना दुर्लभ सम्यक् दुर्लभ संयम, पंचम गुण ठाणा दुर्लभ से दुर्लभ है, चेतन बोधि ज्ञान पावे पाकर केवल ज्ञान, नहीं फिर इस भव में आवे 1" - इस लिपि में शत प्रतिशत अभिव्यक्ति लेकर उतरे हैं, जो आगामी विवरणों से स्पष्ट हो जाता है । जहाँ-तहाँ से प्राप्त पुराअंकनों को इकट्ठा करके ही उन्हें पढ़ने का प्रयास यहाँ किया गया है। कुछेक छूट गए हैं वो भी जागृत पाठकों को अपनी विशेष छवि यदाकदा दर्शा देते हैं । ऐसे पाठकों से उपयोगी जानकारी प्राप्त हो सकती है। " इस लिपि में चित्रांकन द्वारा "साधक" की भावना शत प्रतिशत अभिव्यक्ति लेकर उतरती है भले ही उसे रूप कलाकारों ने अपनी क्षमता के अनुसार दिया है जो आगामी क्रमानुक्रमिक अंकन के विवरण से स्पष्ट हो जाता है । जहाँ-जहाँ वे हैं उसे भी दर्शाने का यहाँ भरपूर प्रयास किया गया है, वे पुरा अंकन सौभाग्य से सारे ही जैन मंदिरों तथा निर्वाण क्षेत्रों के आसपास ही उपलब्ध हुए हैं जो हड़प्पा, मोहन्जोदड़ो से प्राप्त प्रतीकों से समानता के कारण हमें उनका सुराग दे गए हैं । उन्हें अब तक भी अथक प्रयासों के बाद भी कोई पढ़ नहीं सका मात्र इसी कारण कि कोई "कुंजी" विद्वानों, पुरातत्वज्ञों को प्राप्त नहीं हो सकी थी। परंपरागत होने से हमें ऐसी लगभग 24 कुंजियों का ज्ञान तो हो ही गया है। उनका उल्लेख भी आगे किया जा रहा है। "सैंधव पुरालिपि में दिशा बोध" शीर्षक दो अभिप्रायों से चुना गया है। प्रथम तो पुरालिपि का दिशा बोध अर्थात् उस पुरालिपि को किस विशेष दिशाक्रम में सही-सही पढ़ा जावे। यह संभावना चित्राक्षरों / अंकाक्षरों की सही जानकारी और पहचान बिना असंभव है । इस हेतु प्रथम तो जैन अध्यात्म परिचय तथा आत्म हित की पहचान आवश्यक है । इस पर भी अंकनों का अनुक्रम उस सही अर्थ की सूझ देता है जिससे आरंभ और लक्षित दिशा का ज्ञान ही लिपि का अनुक्रमिक दिशा बोध बन जाता है । दूसरे आत्म कल्याण का बोध ही सच्चा दिशा बोध है जो हमारे उस काल के मनीषियों के मन्तव्य को सैंधव पुरालिपि दर्शाती है । इस प्रकार सैंधव लिपि ने अकथनीय पुरुषार्थ का अवलंबन लेकर आत्म चिंतन के महत्त्व को सहज निर्देश दिया है । जैन आगम की भूमिका उसी सूझ से प्रस्तुत होकर उस पुरा सैंधव काल के जैनागम रहस्य और अध्यात्म को Jain Education International iv For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy