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________________ संसार की चकाचौंध से परे चारित्र और चिंतन से जोड़कर पाठक के चिंतन को प्रेरित करा साधनापथ पर अग्रसित कराती है। वह जैन दर्शन में मान्य आत्मा की शाश्वतता की बोधक है। जैनागम के सूत्रों और संकेतों में हमें देखने को मिलती है। जैनागम के अधिकांश सूत्र पुरा सकेताक्षरों पर सैंधव अंतहीन गठान भूलभुलैया दर्शाती है। सिध्दांतों की अदभुत अभिव्यक्ति सैंधव पुरा आश्चर्यजनक रूप से सटीक बैठते हैं। पाठकों की सुविधा के लिए प्रकाशित सैंधव चित्र सूचियाँ भी साथ में प्रस्तुत हैं और लिपि को जैन परिप्रेक्ष्य में पढ़ने की संकेत सूची जिसे रखकर ही उन संकेताक्षरों का मूल्यांकन किया जा सकता है सो भी संजो दी गई है। अपठ्य इस पुरालिपि को पढ़ने की क्षमता के विषय में अपने गुरु दिगम्बराचार्य श्री विद्यासागर जी की मैं हृदय के कण-कण से आभारी हूँ जिन्होंने इसे पढ़ने के लिए मुझे "धर्म" का "मर्म" समझाया और उस भव्यात्मा की भी जिसने आदेशात्मक स्वर में मुझे इन संकेताक्षरों से परिचित कराया । हाँ उन समस्त भव्यात्माओं की जिनने मुझे "कुंजी" रूप बिखरे उन संकेताक्षरों के सन्मुख ले ले जाकर खड़ा किया और पुरालिपि अंकनों की ओर मेरा ध्यान खींचा उलझाया अन्यथा तो लाखों दर्शकों ने मुझसे पूर्व उन-उन स्थलों के दर्शन भी किए हैं और चित्र / फोटो भी खींचे हैं किन्तु किसी ने भी उन्हें पकड़ा नहीं और उजागर भी नहीं किया। माइक्रोबायोलॉजी और पैथोलॉजी पढ़ते-पढ़ाते आँखों को सूक्ष्मदर्शन यंत्र में देखने की जो दृष्टि विशेष मुझे मिली उससे ही अनायास इस लिपि को सूक्ष्मता से पढ़ने में मुझे अति विशेष सहायता मिली है। इसमें मेरी वैज्ञानिक भूमिका ने भी संबल दिया हैं। यह कृति लंबे दो वर्षों तक समय खोते हिंदी के टाइपिस्टों व्दारा भी शुद्ध तैयार नहीं की जा सकी। इस समस्या को लेखक बंधु भली भांति जानते होंगे। सुधार किए जाने पर भी भाषा की त्रुटियों की संभावना को नकारा नही जा सकता। और अधिक विलम्ब ना करते हुए इसे अब सुधी पाठकों के हाथों में सौंप रही हूँ उनसे आलोचना पत्रों की हमें इस विषय में अपेक्षा अवश्य है क्योंकि वही हमारा आगे मार्ग दर्शन करेंगे । आशा है निराश नहीं करेंगे। यह अध्दा प्रसून नव वर्ष में गुरु चरणों की अर्चना में त्रि नमोस्तु सहित समर्पित है। स्नेह रानी जैन, सागर, 9, 1,2006 Jain Education International iiv For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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