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________________ लेरिखका बरेली, उत्तर प्रदेश, में 1936 में लेखिका ब्र, डॉ, स्नेह रानी जैन, बी,एस.सी, एम, फार्म,; पी.एच,डी, का जन्म एक अत्यंत शिक्षित एवं शिक्षा प्रेमी दिगंबर जैन परवार कुल में हुआ। सागर वि,वि, से ही संपूर्ण शिक्षा पू, क्षुल्लक वर्णी जी के आशीर्वचनों से विज्ञान की स्नातिका बन, गौरवांको सहित प्राप्त कर 21 वर्ष की उम्र में ही सागर वि, वि, में शैक्षणिक पद पर कार्यरत हो भेषजी में न केवल भारतीय प्रथम महिला शोधार्थी होने का श्रेय प्राप्त किया बल्कि जर्मनी की डी.ए.ए,डी, सीनियर फैलोशिप व्दारा उत्तरोत्तर शोध कार्य हेतु चुने जाने पर म्युन्स्टर विश्व विद्यालय में शोध कार्य 1966.1968 में संपूर्ण करने का भी गौरव प्राप्त किया। भारतीय संस्कारों के प्रति समर्पित शिक्षिका ने 39 वर्ष अपनी कर्मठ सेवाएं सागर विश्व विद्यालय को देते हुए वेस्ट वर्जीनिया वि.वि.; यू.एस.ए. से आधुनिकतम विषयों में विशेषज्ञता प्राप्त करके भेषजी के आधुनिकतम क्षेत्रों में उच्चतम शोधकार्य दक्षता प्राप्त की। जर्मन तथा रूसी भाषाओं का ज्ञान होने के कारण अनेक वर्षो तक सागर विश्वविद्यालय में जर्मन भाषा की संध्याकालीन कक्षाएं तथा तकनीकी प्रयोगशालीय ट्रेनिंग कोर्स भी चलाए। दिगंबराचार्य पू. विद्यासागर जी का 1978 से सान्निध्य पाकर धार्मिक अभिरुचि जागृत होने पर गुरु से ही धर्म का मर्म जाना और उनके ही आशीर्वाद से 1984 में ब्रह्मचर्य व्रत और 1986 में अणुव्रत धारण किए। इतिहास में अभिरुचि होने के कारण सिंधुघाटी सभ्यता में जैन साम्य पाकर इसी दिशा में खोज करने अंतर्राष्ट्रीय दिगंबर जैन सांस्कृतिक परिषद का गठन करके निजी अर्थ व्यवस्था से शोधकार्य प्रारंभ किया। दैनिकपूजा के संकेतों की परंपरा की खोज पुरालिपि के अनखुले पृष्ठों तक की सीढ़ी दिखला गई। शिकागो में आयोजित 1993 के शताब्दी विश्वधर्म सम्मेलन में मूल जिनधर्म की प्रस्तुति की। तभी से प्रत्येक जैना सम्मेलन में शोधपत्रों की निरंतर प्रस्तुति की है। देश विदेश की अनेक पत्रिकाओं में लेख छपे हैं और कुछेक को पुरस्कृत भी किया गया है। जैन धर्म के संदेश को अंग्रेजी गानों के माध्यम से नानवायलेंस नामक पुस्तिका के व्दारा प्रभावी रूप से प्रस्तुत किया है। अंतर्राष्ट्रीय तकनीकी, एपिग्राफी सेमिनारों मे अनेकों बार सक्रिय भाग लिया है। एक वर्ष अखिल भारतीय दिगंबर जैन महिला संगठन की उपाध्यक्षा और पश्चात दो वर्षों तक अध्यक्षा चुनी गईं। वर्तमान में अंदिजैसप की अध्यक्षा हैं। अब तक लगभग 50 से अधिक लेख और कई किताबें पुरातत्व शोध संबंधी प्रकाश में आ चुकी हैं। वर्ष 2001 से लगातार इतिहास तथा पुरातत्व की कान्फ्रेंसों में शोधपत्र प्रस्तुति की तथा जैन विद्वत संगोष्ठियों में अपने आलेख प्रस्तुत कर चुकी हैं। अब तक लिखी गईं कृतियाँ- 'द हरप्पन ग्लोरी ऑफ जिनाज, 2001, ; 'द इथिकल मैसेज ऑफ इंडस पिक्चोरियल स्क्रिप्ट, 2002; 'सैंधव पुराअवशेष एक शाश्वत अभिव्यंजना', 2002; 'द सीड इंडस रॉक ऑफ कर्नाटका', 2003; 'इतिहास बोलता है, 2004; "सैंधव पुरालिपि में दिशाबोध', 2004; 'गाइड बुक टू डिसीफर द इंडस स्क्रिप्ट' 2005; 'इन्ट्रोडक्शन टू जैनिज्म, 2006 एवं 'इंडस कीज एंड सम इंडस जिनाज,' 2006 हैं। पिछले दो वर्षों से प्राकृत शोध संस्थान, श्रवणबेलगोला; कर्नाटक में पुरातत्व शोधरत रहीं। सर्वेक्षण व्दारा विश्व को पुराकुंजियाँ दिखलाने तथा 'सैंधव लिपि को आद्योपांत सप्रमाण पढ़ने में अग्रणी' होने का श्रेय प्राप्त किया है। पुराकुंजियों की खोज अब भी निरंतर जारी है। विदेशों में प्रभावना हेतु जाती हैं। यह प्रस्तुत कृति लेखिका के दीर्घकालीन पुरातात्विक अन्वेषण और सम्पूर्ण मौलिक चिन्तन का सुफल है। ISBN 619053405 mediation For Personal & Private Use only (www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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