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अमरत्व दिलाकर उसे एक एक छांटकर पाठकों के सम्मुख परोस दिया है । सैधव कलाकारों की भावात्मक अभिव्यक्ति को विद्वानों तक पहुंचाने का कार्य भी बड़ी सफलता से पूरा हुआ है । वह "सीमेंटिक्स" ही वास्तव में सैधव पुरालिपि का प्राणाधार है। रही बात उसे समझने और पहचानने की सो वह तो सीधे बुद्धि से जुड़ा हुआ है, जिसे तपलीन प्रत्येक "जिन श्रमण" ने समझा है। आवश्यकता अब इस बात की है कि किस प्रकार उस “सीमेंटिक्स" से लिपि वाचकों को अवगत कराया जावे क्योंकि सैंधव लिपिकार की अभिव्यक्ति और वर्तमान वाचकों की सोच और अर्थ ग्राह्यता में विशाल धरातलीय अंतर है जिसे मेटा जाना अत्यंत आवश्यक है । अक्षर सदैव संकेत होता है। स्वरों में बांध, उसे शब्द बना अर्थवान बनाया गया है।
इतना तो सच है कि मूल पुरा सामग्री का अवलोकन किए बिना मात्र चित्रों के आधार पर रेबस विधि से चिंतन करके उन्हें पठन हेतु उपयोग करना भ्रामक हो सकता है किंतु सूक्ष्म अंकन के अध्ययन हेतु प्राप्त कुंजियों का आधार हमें दिशा बोध देने के लिए अत्यंत सहायक सिद्ध हुआ है । कुंजियों से अब इतना भी निश्चित हो चुका है कि सिंधु घाटी वैभव, जैन अध्यात्म का ही परिचायक है अतः उसका सैद्धांतिक ज्ञान पुरा लिपि को पढ़ने में अत्यंत आवश्यक है। यह जन सामान्य की लिपि नहीं श्रमणों और साधकों की लिपि होने के कारण सहज रूपेण उनके ज्ञान में झलकी है, और परम्परागत आगे बढ़ी है । इसी कारण आज भी ये श्रावकों की दैनिक पूजा का अंग है । कुछेक प्राचीन मूर्तियों पर जो मंत्र अंकित प्राप्त हुए हैं वे संकेत करते हैं कि किसी काल में भाषा हेतु उनका प्रयोग अवश्य प्रचलित रहा है । संभवतः ऊँ, ही.. अर्ह, ब्लू, क्लीं, अर्हलुब्यू ,स्क्यूँ म्यूँ, घी, आदि तथा अन्य अनेक जिन्हें अब हम नहीं उच्चारते। रेबस पाठन विधि में चित्र को आधार बनाया जाता है जबकि सैंधव लिपि में भाव अभिव्यक्ति प्रधान है। यही इस पाठन की विशेषता है।
प्राचीन सिक्कों में भी यह चित्रमय सैंधव लिपि अंकन पूरा-पूरा झलका है । मौर्य कालीन सिक्कों तक अनेक पुरालिपि संकेताक्षर सहज दृष्ट होते हैं भले ही उनका अर्थ और उच्चारण बदल गए हों अथवा कि वे परम्परागत बिना अर्थ जाने ही सहेजे गए हों । जो भी हो उनका होना ही उन्हें भारतीय मूल संस्कृति से जोड़ देता है जिस पर न केवल भारतीयों को बल्कि उन समस्त कौमों, कबीलों को नाज है जहाँ जहाँ वे अपनी उपस्थिति आज भी दर्शाते हैं । इस लिपि को पढ़ने की एकमात्र विधि सैंधव संस्कृति को उसके मूल भारतीय परिप्रेक्ष्य में गहरे उतरकर झांकने जानने पर ही मिलेगी अन्यथा नहीं। यह वह शाश्वत संस्कृति है जिसे उत्सर्पिणी अवसर्पिणी जैसे काल सर्प भी ना मेट सके क्योंकि यह आत्मसंस्कृति है ।मनुष्य को मानवता का पथ दर्शाती संस्कृति है। इसे भारत में रहकर ही समझना पड़ेगा। कहावत 'बी ए रोमन इन रोम की तरह इसे सच्चा भारतीय बनकर देखना होगा। भारतीय उत्तरकालीन संस्कृतियाँ भी उसी की ही चाशनी में पगी हुई स्वयं को हिंदू कहती हैं।
इस गुरुतर शोध कार्य एवं प्रकाशन में पूरा पूरा सहयोग ब्लू फील्ड, अमेरिका के श्रीमति रमा देवी बिहारी लाल दिगंबर जैन ट्रस्ट का रहा है जिसके लिए मै ट्रस्टियों की विशेषकर डॉ. पुष्पा रानी एवं डॉ. श्रीमती छाया जैन की हृदय से आभारी हूँ । हमारी शोधार्थी टीम के सभी सदस्यों. श्रीमती आशा रानी मलैया. इंजीनियर जिनेन्द्र जैन एवं फोटोग्राफर श्री रूडी जन्समा के आंशिक सहयोग के लिए भी मैं हृदय से आभारी हूँ कि उन्होंने मेरी इस साधना को पूर्णता दिलाई। इस शोध कार्य को वर्तमान स्थिति तक लाने के लिए जिस विशाल राशि और परिश्रम की आवश्यकता रही है पाठकगण उसका अनुमान संभवतः नहीं लगा सकेंगे इसलिए इस अनमोल कृति का कोई मूल्य ना दर्शाते हुए इसको सुधी पाठकों को न्योछावर राशि के सहारे सौंप रही हूँ। वही इसके सही पारखी होंगे। ब्र, स्नेह रानी जैन
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