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3. नमोऽस्तु वर्धमानाय सूत्र नमोऽस्तु वर्धमानाय स्पर्धमानाय कर्मणा। तज्जयावाप्तमोक्षाय परोक्षाय कुतीर्थिनाम् ।। येषां विकचारविन्दराज्या, ज्यायःक्रमकमलावलिं दधत्या। सदृशैरिति संगतं प्रशस्यं, कथितं सन्तु शिवाय ते जिनेन्द्राः ।। कषायतापार्दित-जन्तु-निवृतिं करोति यो जैनमुखाम्बुदोदगतः। स शुक्रमासोद्भव-वृष्टि-संनिभो दधातु तुष्टिं मयि विस्तरो गिराम् ।। स्पर्धमानाय कर्मणा । (अर्थ:) (1) जो कर्म-गण से स्पर्धा (मुकाबला) करते हैं,
(अन्त में) जिन्होंने कर्मगण पर विजय पाने द्वारा मोक्ष प्राप्त किया है, व जो मिथ्यादर्शनियों को परोक्ष है। (प्रत्यक्ष नहीं, बुद्धिगम्य नहीं), उन श्री वर्धमान स्वामी (महावीरदेव) को मेरा नमस्कार हो।
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याबाप्तमायारा
(2) जिनके उत्तम चरणकमल की
श्रेणि को धारण करनेवाली विकस्वर PL नमोऽस्तु व मानाय
कमलपंक्ति ने (मानों) कहा कि
समानों के साथ संगति प्रशस्य है वे जिनेन्द्र भगवान निरुपद्रवता (कल्याण-मोक्ष) के लिए हों।
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(3) कषायों के ताप से पीड़ित प्राणियों को जिनेश्वर भगवान के मुखरुपी बादल से प्रकटित, ज्येष्ठ मास में हुई वृष्टि के समान जो वाणी का विस्तार (समूह) शान्ति करता है, वह मुझ पर अनुग्रह करें।
(समझ) : यहां चित्र के अनुसार 1ली गाथा में अष्ट प्रातिहार्य सहित महावीर स्वामी को देखते हुए सिर नमाकर नमोऽस्तु वर्द्ध' बोलना है। ‘स्पर्धमानाय कर्मणा' बोलते समय भगवान को सिर पर कालचक्र के आघात जैसी भयंकर कर्मपीड़ा भी शांति से सहते हुए व कर्मों के साथ विजययुद्ध करने के रुप में देखना है। उसमें विजय पाकर मोक्ष प्राप्त कर सिद्धशिला पर जा बैठे यह 'तज्जयावाप्तमोक्षाय' बोलते समय दृष्टिसन्मुख आवे। ‘परोक्षाय .... के उच्चारण पर मिथ्यादर्शनियों का मुँह फिर जाता है वे तेजस्वी प्रभु को देख नहीं पाते ऐसा दिखाई पड़े।
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