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भव - भवों को, जन्मों को।
विणिग्गय - निकली हुई। सयसहस्स - लाखों।
कहाइ _ - कथा के द्वारा। महणीए - मिटाने वाली, मथन करने वाली। बोलंतु - बीते, व्यतीत हों। चउवीस - चौबीस।
- मेरे। जिण - तीर्थंकरों से, जिनेश्वरों से।। दिअहा दिन
चिरसंचिय पाव-पणासणीई, भवसयसहस्समहणी भावार्थ : चिरकाल से संचित पापों का नाश करने वाली तथा लाखों जन्म जन्मांतरों का नाश (अंत) करने वाली
और जो सभी तीर्थंकरों के पवित्र मुखकमल से निकाली हुई है ऐसी सर्व हितकारक धर्म कथा में ही, अथवा जिनेश्वरों के नाम का
चउनीसजिणविणिग्गयकहाइ कीर्तन, उनके गुणों का गान और उनके चरित्रों का वर्णन आदि वचन की पद्धति द्वारा ही मेरे दिन रात व्यतीत हों।।46।।
वोलतु मे दिअहा
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दिंतु
(जन्मान्तर में भी समाधि तथा बोधिकी प्राप्ति के लिये प्रार्थना)
मम मंगलमरिहंता, सिद्धा साहू सूअं च धम्मो अ। सम्मद्दिठी, देवा दिंतु समाहिं च बोहिं च ||47||
शब्दार्थ मम - मुझे।
धम्मो - धर्म। मंगलं - मंगल रूप हो।
सम्मदिट्ठी-देवा - सम्यग्दृष्टि देव। अरिहंता - अरिहन्त।
- देवें, दो। सिद्धा - सिद्ध।
समाहिं - समाधि। साहू . - साधु।
- तथा। सुअ - श्रुत
बोहिं - बोधि, सम्यक्त्व।
- एवं। भावार्थ : अरिहन्त, सिद्ध, साधु, श्रुत धर्म (अंग उपांग आदि शास्त्र) और धर्म (चारित्र धर्म) ये सब मेरे लिये मंगल रूप हों तथा सम्यग्दृष्टि देव समाधि (चित्त की स्थिरता) एवं बोधि (सम्यक्त्व) की प्राप्ति में मेरे सहायक हों।।47 ||
-सन
-
और।
नरिहता
10 । सिद्धा,
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समाधम्मो
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सम्मदिही देवा |
दित
বাঘা = बोहिं च
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