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________________ जावंत के वि भावार्थ : ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिरछे लोक में जितने भी चैत्य (तीर्थंकरों की मूतियाँ) है उन सबको मैं यहाँ रहता हुआ वहाँ रहे हुए (चैत्यों) को वन्दन करता हूँ।।44।। ___ (सर्व साघुओं को नमस्कार) जावंत के वि साह, भरहेरवय-महाविदेहे ॥ सव्वेसिं तेसिं पणओ, तिविहेण तिदंड-विरयाणं।।45।। शब्दार्थ - जो। तिविहेण - करना, कराना और अनुमोदन - कोई। करना इन तीन प्रकारों से। - भी। तिदंड विरयाणं - तीन दंड से जो विराम पाये हुए हैं साहू - साधु। उनको तीनदंड-मनदंड, वचनदंड भरहेरवय-महाविदेहे - भरत, ऐरवत तथा कायादंड, मन से पाप करना मनदंड, महाविदेह क्षेत्र में। वचन से पाप करना-वचचनदंड - और। शरीर से पाप करना काया दंड। सव्वेसिंह तेसिं - उन सबको। पणओ - नमन करता हूँ। भावार्थ : भरत, ऐरावत और महाविदेह में विद्यमान जो कोई भी साधु मन, वचन और काया से पाप प्रवृत्ति करते नहीं, कराते नहीं, करते हुए का अनुमोदन नहीं करते, उन सबको मैं वन्दन करता हूँ।।45।। (धर्मकथा आदि द्वारा जीवन व्यतीत हो) चिर-संचिअ-पाव-पणासणीइ भव-सय-सहस्स महणीए। चउवीस-जिण-विणिग्गय-कहाइ बोलंतु मे दिअहा।।46।। शब्दार्थ - बहुत काल से, चिरकाल से। पाव - पापों का। - इकट्ठे किये हुए। पणासणीइ - नाश करने वाली। चिर संचिअ 79 For Perso v ate Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004055
Book TitleJain Dharm Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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