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उसमें संक्लेश परिणाम की हानि होती है। शुद्ध परिणामों की वृद्धि होती है। शुद्ध परिणामों की वृद्धि होने से जीव के सातावेदनीय आदि शुभ प्रकृतियों का बंध करने वाले धर्मानुरागरूप शुभ परिणामो की प्राप्ति होती है, यह विशुद्धि लब्धि है।
3. देशना लब्धि - इस विशुद्धि लब्धि के प्रभाव से जिनवाणी सुनने की अभिलाषा जागृत होना देशना लब्धि है।
4. प्रयोग लब्धि - पूर्वोक्त तीनों लब्धियों से युक्त जीव प्रति समय विशुद्धि करता हुआ आयु कर्म के सिवाय सात कर्मों की स्थिति को एक कोडाकोडी सागरोपम से कुछ कम करे वह प्रयोग लब्धि है।
5. करण लब्धि - प्रयोग लब्धि के प्रथम समय से लगाकर पूर्वोक्त आयुवर्जित सात कर्मों की स्थिति एक कोडाकोडी सागरोपम से कुछ कम रखी थी, उसे पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितनी कम करे तब करण लब्धि प्राप्त होती है।
भव्य जीवों में भी किसी समय कोई जीव वीर्योल्लास से आध्यात्मिक विकास-यात्रा में आगे बढ जाता है। उसके यथाप्रवृत्तिकरण को चरम यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं।
अपूर्वकरण :- चरम यथाप्रवृत्तिकरण में आए हुए जीव का सद्गुरु का योग मिलने पर धर्म श्रवण के द्वारा उसका मन पाप भीरू एवं विशिष्ट वैराग्य वाला हो जाता है। उसे सांसारिक सुख क्षणिक एवं दुखरूप प्रतीत होने लगते हैं। आत्मा को अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण करते हुए कभी भी नहीं आया - ऐसा अपूर्व वैराग्ययुक्त अध्यवसाय उत्पन्न होता है, इसे ही शास्त्रों में अपूर्वकरण कहा गया है। अपूर्वकरण का कार्य ग्रन्थिभेद है। यथाप्रवृत्तिकरण तो भव्य की तरह ही अभव्य जीव भी अनंतबार करता है लेकिन अपूर्वकरण भव्य को ही होता है।
अपूर्वकरण की अवस्था में जीव कर्मशत्रुओं पर विजय पाते हुए निम्नलिखित पाँच प्रक्रियाएँ करता है :
1. स्थितिघात :- पूर्व में यथाप्रवृत्तिकरण द्वारा जो सात कर्मों की स्थिति अन्त: कोडाकोडी सागरोपम की हुई है, अपूर्वकरण द्वारा कर्मों की स्थिति और भी कम हो जाती है।
2. रसघात :- कर्मविपाक की प्रगाढ़ता को कम करना अर्थात् अपूर्वकरण के द्वारा कर्मों के फल देने की शक्ति या रस का हीन या मंद कर देना।
3. गुणश्रेणी :- अपूर्वकरण के द्वारा जिन कर्म दलिकों का स्थिति घात किया जाता है, उन कर्मों को ऐसे क्रम में रख देना, ताकि उदयकाल के पूर्व ही उनका फल भोग लिया जा सके।
4. गुणसंक्रमण :- पहले बन्धी हुई अशुभ प्रकृतियों को वर्तमान में बन्ध रही शुभ प्रकृतियों के रूप में परिवर्तित कर देना।
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