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5. अपूर्व स्थिति बंध :- पहले की अपेक्षा अत्यन्त अल्प स्थिति के कर्मों का बन्ध करना अपूर्वस्थितिबंध है।
अनिवृत्तिकरण :- निवृत्ति अर्थात् पीछे हटना (वापस लौट जाना), अनिवृत्ति अर्थात् जहाँ से सम्यक्त्व प्राप्त किये बिना वापस नहीं लौटना। अपूर्वकरण द्वारा राग-द्वेष की गांठ टूटने पर जीव के परिणाम अधिक शुद्ध होते हैं, उस समय अनिवृत्तिकरण होता है, इस परिणाम को प्राप्त करने पर जीव सम्यक्त्व प्राप्त किये बिना नहीं लौटता है, इसलिए इसका नाम अनिवृत्तिकरण है । इस करण के समय जीव का वीर्योल्लास पूर्व की अपेक्षा बढ़ जाता है। तीनों करण में प्रत्येक की स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। अनिवृत्तिकरण में भी उपर्युक्त स्थितिघातादि चालू ही है, लेकिन अभी गुणस्थान पहला ही है।
जब अनिवृत्तिकरण की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति का एक भाग शेष रहता है, तब अन्तरकरण की क्रिया शुरू होती है। इस प्रक्रिया में मिथ्यात्व मोहनीय के कर्मदलिकों को आगे पीछे कर दिया जाता है। कुछ कर्म दलिकों को अनिवृत्तिकरण के अंत तक उदय में आने वाले कर्मदलिकों के साथ और कुछ को अन्तर्मुहर्त बीतने के बाद उदय में आने वाले कर्मदलिकों के साथ कर दिया जाता है। इससे अनिवृत्तिकरण के बाद का एक अन्तर्मुहूर्त काल मिथ्यात्वमोहनीय के कर्मदलिक से रहित हो जाता है। प्रथम स्थिति जब पूर्ण होती है और जीव जैसे ही अंतरकरण में प्रवेश करता है, वैसे ही वहाँ मिथ्यात्व के दलिक नहीं होने से वह औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है। प्रथम गुणस्थान से चतुर्थ गुणस्थान में जाता है।
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