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तीन ग्रन्थियाँ है और इन पर विजय प्राप्त करने की प्रक्रिया ग्रन्थि भेद कहलाती है, जिसके क्रमश: तीन स्तर हैं - 1. यथाप्रवृत्तिकरण 2. अपूर्वकरण और 3. अनिवृत्तिकरण
यथाप्रवृत्तिकरण :- जीव अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण करते हुए विविध दुख उठा रहा है। जिस प्रकार पर्वतीय नदी का पत्थर लुढ़कते-लुढ़कते इधर-उधर टक्कर खाता हुआ गोल और चिकना बन जाता है, उसी प्रकार जीव भी अनन्तकाल से अज्ञानपूर्वक दुख सहते-सहते कोमल एवं स्नेहिल बन जाता है। उस परिणाम शुद्धि के
कारण जीव आयुष्य कर्म के सिवाय शेष सात कर्मो की बाँधी हुई दीर्घ स्थिति (मोहनीयकर्म 70 कोडाकोडी सागरोपम) घटकर मात्र एक कोडाकोडी सागरोपम से कुछ कम जितनी कर देता है । इस परिणाम विशेष को यथाप्रवृत्तिकरण कहते है। इस करण वाला जीव राग-द्वेष की मजबूत गाँठ तक पहुँच जाता है, किन्तु उसे खोल नहीं सकता। यह करण पुरूषार्थ और साधना के परिणाम रूप नहीं होता है, वरन् एक संयोग है, एक प्राकृतिक उपलब्धि है। इस प्रक्रिया को ग्रन्थि देश प्राप्ति भी कहते है।
यह आवश्यक नहीं है कि यथाप्रवृत्तिकरण करने वाला प्रत्येक जीव आध्यात्मिक विकास यात्रा में आगे बढ़ जाए, क्योंकि यथाप्रवृत्तिकरण भव्य और अभव्य दोनों प्रकार के जीव अनेक बार करते हैं किन्तु अभव्य जीव यहाँ से आगे नहीं बढ़ सकते है, यही पर रह जाते हैं और पुनः दीर्घस्थिति का बंध कर लेते हैं।
यथाप्रवृत्तिकरण की प्रक्रिया करने के पूर्व आत्मा को निम्नलिखित पाँच लब्धियाँ प्राप्त होती
1. क्षयोपशम लब्धि, 2. विशुद्धि लब्धि, 3. देशना लब्धि, 4. प्रयोग लब्धि और 5. करण लब्धि ।
___ 1. क्षयोपशम लब्धि - अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण करते-करते किसी आत्मा को किसी समय ऐसा योग मिलता है कि वह ज्ञानावरणीय आदि अष्ट कर्म की अशुभ प्रकृतियो के अनुभाग (रस) को समय-समय में अनंतगुणा घटाता-घटाता क्रम से ऊपर आता है, तब क्षयोपशम लब्धि प्राप्त होती है।
2. विशुद्धि लब्धि - इस क्षयोपशम लब्धि के प्रताप से अशुभ कर्म का विपाकोदय घटता है।
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