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है। इस अवस्था में स्थित व्यक्ति को अर्हम, अरिहंत, सर्वज्ञ, केवली, जिन जिनेश्वर आदि कहा जाता है।
14. अयोगी केवली गुणस्थान :- जिस गुणस्थान में योग प्रवृत्ति का सम्पूर्ण निरोध हो जाने से अयोग अवस्था की प्राप्ति होती है, उसे अयोगी केवली गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थान में पाँच लघु अक्षर अ, इ, उ, ऋ, लृ के मध्यम स्वर से उच्चारण के काल जितनी स्थिति में रहकर वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र इन चार अघाती कर्मों का क्षय करके एक समय की ऋजु (बिना मोडवाली) गति से औदारिक, तैजस और कार्मण शरीर को छोड़कर जीव सिद्ध गति को प्राप्त होता है। यह आत्मा की पूर्ण शुद्ध व संसार मुक्त अवस्था
है।
इस प्रकार गुणस्थान जीव के आध्यात्मिक विकास क्रम को दर्शाते हैं । इससे यह पता लगता है कि जीव किस प्रकार अपने दोषों व कर्मों का परिहार कर आध्यात्मिक उन्नति करता चला जाता है।
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अयोगी केवली गुणस्थान
गुणस्थानों सम्बन्धी विशेष बातें.
उक्त चौदह गुणस्थानों में से 1, 4, 5, 6, 13 यह पाँच गुणस्थान शाश्वत है, अर्थात् लोक में सदा रहते हैं।
परभव में जाते समय जीव के 1,2,4 ये तीन गुणस्थान हो सकते हैं।
3,12,13 - इन तीन गुणस्थानों में मरण नहीं होता ।
3, 8, 9, 10, 11, 12, 13, 14 इन गुणस्थानों में आयु का बन्ध नहीं होता ।
1, 2, 3, 5, 11 - यह पाँच गुणस्थान तीर्थंकर नहीं फरसते ।
4, 5, 6, 7, 8 - इन पाँच गुणस्थानों में ही तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है।
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12, 13, 14, यह तीन गुणस्थान अप्रतिपाती हैं यानी इन गुणस्थानों से जीव का पतन नहीं होता।
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आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया एवं ग्रंथि भेद
आत्मा का शुद्ध स्वरूप मोह से आवृत है और इसे दूर करने के लिए साधक को तीन मानसिक ग्रन्थियों का भेदन करना होता है। यह आत्मा जिस प्रासाद (घर) में रहती है, उस पर मोह का आधिपत्य है। मोह ने आत्मा को बन्दी बना रखा है। प्रासाद के तीन द्वारों पर उसने अपने प्रहरी लगा रखे हैं। वहाँ जाकर आत्मदेव के दर्शन के लिए व्यक्ति को तीनों द्वारों से प्रहरियों पर विजय प्राप्त करके गुजरना होता है। यह आत्मदेव का दर्शन ही आत्मसाक्षात्कार है और यह तीन द्वारपाल ही