SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कषाय का उदय यहाँ चालू रहता है। इस गुणस्थान के अंत में लोभ का भी सर्वथा उदय - विच्छेद अथवा उपशम हो जाता है। 11. उपशांतमोह गुणस्थान जिस गुणस्थान में मोहनीय कर्म की सभी प्रकृतियों का उपशम रहता है, उसे उपशान्त मोहनीय गुणस्थान कहते हैं। आध्यात्मिक विकास करते हुए वे ही जीव इस गुणस्थान पर आते हैं, जो उपशम श्रेणी से आते हैं। इस गुणस्थान में आने वाले जीव निश्चित नीचे गिरते हैं। जैसे गन्दे जल में कतकफल (फिटकरी) घुमाने से गंदगी नीचे बैठ जाती हैं स्वच्छ जल ऊपर रह जाता है, वैसे ही उपशमश्रेणी में शुक्लध्यान से मोहनीयकर्म जघन्य एक समय और उत्कृष्ट एक अन्तर्मुहूर्त के लिए उपशांत कर दिया जाता है, जिससे जीव के परिणाम में एकदम वीतरागता और निर्मलता आ जाती है। इसलिए उसे उपशान्त मोह गुणस्थान कहते हैं । उपशमश्रेणी का यह अंतिम गुणस्थान है। यहाँ से जीव का पतन दो कारणों से होता है। 1. भवक्षय और 2. कालक्षय से । इस गुणस्थान पर मनुष्य आयु पूर्ण होने पर जीव देवगति में अनुत्तर विमान में ही जाता है। कालक्षय होने से जीव जिस क्रम से ऊपर चढ़ता है उसी क्रम से वह नीचे के गुणस्थानों में आ जाता है। कभी-कभी प्रथम गुणस्थानक तक पहुँच जाता है। 12. क्षीणमोह गुणस्थान क्षपक श्रेणी में चढने वाला जीव ही दसवें से सीधा बारहवें गुणस्थान में आकर वीतरागता एवं यथाख्यात चारित्र को प्राप्त करता है। मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय होने से जिस गुणस्थान की प्राप्ति होती है, उसे क्षीणमोह गुणस्थान कहते है। इस गुणस्थान को प्राप्त करने वाले व्यक्ति का पतन नहीं होता है। आठ कर्म में मोहनीय कर्म राजा है । जिस प्रकार राजा के भाग जाने से सेना स्वतः भाग जाती है, उसी तरह मोह के परास्त होने पर अन्तर्मुहूर्त में ही ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय ये तीनों घातीकर्म भी नष्ट होने लग जाते हैं। साधक अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतचारित्र से युक्त होकर विकास की अग्रिम श्रेणी में चले जाते हैं। इसकी जघन्य व उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त होती है। सयोगी केवली गुणस्थान 13 13. सयोगीकेवली गुणस्थान :- चार घातीकर्मों का क्षय होने से जिस गुणस्थान में केवलज्ञान केवलदर्शन प्राप्त हो और जो योग सहित हो, उसे सयोगी गुणस्थान कहते है। इस गुणस्थान पर साधक को मनोयोग, वचनयोग और काययोग होते है, इसलिए इसे सयोगी कहा गया है। योग के कारण इस गुणस्थान में मात्र एक सातावेदनीय कर्म का ही बंध होता है। कषाय के अभाव स्थिति और रस का बंध नहीं होता है। अतः यहाँ प्रथम समय में सातावेदनीय का बंध होता है, दूसरे समय में उदय में आता है और तीसरे समय में निर्जरित हो जाता 69
SR No.004055
Book TitleJain Dharm Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy