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________________ करण = अध्यवसाय, परिणाम। जहाँ अध्यवसायों में तरतमता / भिन्नता | असमानता होती है अर्थात् एकरूपता नहीं होती, उसे निवृत्तिकरण गुणस्थान कहते है। अनादिकाल से जो-जो जीव अतीत में इस गुणस्थानक को प्राप्त हुए हैं, वर्तमान में प्राप्त कर रहे हैं अथवा भविष्यकाल में प्राप्त करेंगे, इन तीनों कालों के समस्त जीव इस गुणस्थान में पहली बार आने पर भी प्रथम समय परस्पर उनके अध्यवसाय समान नहीं होते। उनमें भिन्नता या असमानता होती है। इसी गुणस्थानक के दूसरे समय में जो जीव आये थे, आये है और आयेंगे उन सबके अध्यवसाय भी परस्पर समान न होकर हीनाधिक विशुद्धिवाले होते हैं। इस प्रकार सर्वसमयों में हीनाधिक विशुद्धि वाले अध्यवसाय के स्थान होने से इस गुणस्थानक का दूसरा नाम निवृत्तिकरण है। अथवा जिस गुणस्थान में अप्रमत्त आत्मा की अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान तथा प्रत्याख्यान, इन तीनों कषायों की जहाँ बादर रूप से निवृत्ति हो जाती है, उसे निवृत्ति बादर गुणस्थान कहते हैं। भावों की विशुद्धि के कारण इस गुणस्थानक से आत्मा गुणश्रेणी पर आरूढ होने की तैयारी करती है। श्रेणी दो प्रकार की होती है - 1. उपशमश्रेणी और 2. क्षपकश्रेणी| मोह को उपशांत कर आगे बढने वाला जीव उपशमश्रेणी से आरोहण कर ग्यारहवें गुणस्थान तक जाता है। वहाँ मोह के पुनः प्रकट होने पर जीव नीचे की भूमिकाओं में आ जाता है। क्षपकश्रेणी से चढनेवाला जीव मोहनीय कर्म का क्षय करते करते 8-9-10-12 वें से सीधा तेरहवें गुणस्थानक पर केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है। इस गुणस्थान में भी जीव ग्रन्थिभेद की क्रिया करता है। आठवें, नौवें, दसवें और ग्यारहवें गुणस्थान की जघन्य स्थिति एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की है। 9. अनिवृत्तिकरण (बादर सम्पराय गुणस्थान) :- अनिवृत्ति का अर्थ अभेद, समानता है। इस गुणस्थान में सभी काल के सभी जीवों के एक समय में एक समान अध्यवसाय ही होते हैं, अतः अध्यवसाय की समानता के कारण इसे अनिवृत्तिकरण गुणस्थान कहा गया है। इस गुणस्थान में जीव प्रत्याख्यानी चौक (क्रोध, मान, माया, लोभ) अप्रत्याख्यानी चौक, हास्य आदि नो कषाय तथा संज्वलन क्रोध, मान, माया इन 20 प्रकृतियों का उपशम या क्षय करता है। इस गुणस्थान का दूसरा नाम अनिवृत्ति बादर गुणस्थान है। __10. सूक्ष्मसम्पराय :- जिस गुणस्थान में मात्र संज्वलन लोभ कषाय का सूक्ष्म रूप से उदय रहता है, उसे सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान कहते हैं। मोहनीय कर्म की 28 प्रकृतियों में से 7 प्रकृतियों का सातवें गुणस्थान में, 20 प्रकृतियों का नौवें गुणस्थान में सर्वथा क्षय अथवा उपशम हो जाता है। केवल सूक्ष्म रूप से संज्वलन लोभ रूप SARK8ries Aboroorani informatrayorg
SR No.004055
Book TitleJain Dharm Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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