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________________ प्रमत्त संयत गुणस्थान अप्रमत्त संवत - 6. प्रमत्तसंयत गुणस्थान :- छठे गुणस्थान में साधक कुछ और आगे बढ जाता है। वह देशविरत से सर्वविरत हो जाता है। साधक सम्पूर्ण रूप से पाप क्रियाओं से निवृत होकर पंच महाव्रतों को धारण कर साधु बन जाता है । किन्तु उनमें प्रमाद की सत्ता रहती है इसलिए इस गुणस्थान का नाम प्रमत्त संयत रखा गया हैं। यहाँ प्रमत्त का मतलब प्रमादी-आलसी न होकर विशिष्ट कक्षा की जागृती का अभाव है। इस गुणस्थान का काल जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। इस गुणस्थान से लेकर 14वें गुणस्थान तक की प्राप्ति केवल संख्यात वर्ष आयुष्य वाले मनुष्य को ही होती है। Education International क्षीण कवाय 7. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान :- जो मुनि विशिष्ट जागृती के अभाव रूप प्रमादो का सेवन नहीं करते, वे अप्रमत्त संयत कहलाते है। उनके गुणस्थान को अप्रमत्तसंयत गुणस्थान कहा जाता है। इस गुणस्थान में संयमी महात्मा सतत स्वाध्याय, ज्ञान, ध्यान, तप द्वारा दर्शन व चारित्र गुण को निर्मल करते हैं। परन्तु इस अवस्था में वे मात्र अन्तर्मुहूर्त ही रह सकते हैं। छठे प्रमत्तसंयत और सातवें अप्रमत्त संयत गुणस्थान में इतना ही अन्तर है कि सातवें गुणस्थान में तनिक भी प्रमाद नहीं होता इसलिए व्रतों में अतिचार नहीं लगते जबकि छट्ठे में प्रमादयुक्त अवस्था होने से व्रतों में अतिचार लगने की संभावना रहती है। ये दोनों गुणस्थान घडी के पेण्डुलम की तरह अस्थिर हैं। अर्थात् कभी सातवें से छठा, कभी छठे से सातवें गुणस्थान क्रमशः होते रहते हैं। अप्रमत्तसंयत गुणस्थान की समय स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक की होती है। इसके बाद वे अप्रमत्त मुनि या तो आठवें गुणस्थान में पहुँचकर उपशम श्रेणी ले लेते है या पुनः छठे गुणस्थान में आ जाते है। 8. अपूर्वकरण (निवृत्तिकरण) गुणस्थान :- पूर्व में कभी नहीं आए ऐसे आत्मा के निर्मल परिणाम जिस गुणस्थान में आते हैं उसे अपूर्वकरण गुणस्थान कहते हैं। यह आध्यात्मिक-साधना की एक विशिष्ट अवस्था है। इस गुणस्थान का दूसरा नाम निवृत्तिकरण भी है। निवृत्ति = असमानता, भिन्नता, तरतमता । **** 67 For Personal Private Use Only .www.jainelibrary.org
SR No.004055
Book TitleJain Dharm Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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