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देव
अनैतिक मानते हुए भी उनका त्याग नहीं कर पाता है। ___अविरत सम्यग्दृष्टि को दर्शन सप्तक का क्षय, उपशम या क्षयोपशम करना होता है। दर्शन सप्तक
अर्थात् अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ, वासुदेव मिथ्यात्व मोह, मिश्र मोह और सम्यक्त्व मोह।
___इन सात प्रकृतियों का जब क्षय होता है तब क्षायिकसम्यक्त्व होता है और जब उपशम होता है तब औपशमिक सम्यक्त्व होता है और जब क्षयोपशम होता है तब क्षयोपशमिक सम्यक्त्व होता है। अविरतसम्यग्दृष्टि को इन तीनों में से कोई भी सम्यक्त्व
हो सकता है। इस गुणस्थान में सात स्थानों का बंध नहीं होता है 1. नरक, 2. तिर्यंच, 3. भवनपति, 4. वाणव्यन्तर, 5. ज्योतिष, 6. स्त्रीवेद, 7.नपुंसकवेद।
चौथे गुणस्थान की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम।
5. देशविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थान :जिस व्यक्ति के व्रत-अव्रत दोनों हो, जो
देश विरति गुणस्थान प्रत्याख्यानीयकषाय के उदय से पाप क्रियाओं से सम्पूर्ण निवृत नहीं हो सका, किन्तु अप्रत्याख्यान का अनुदय होने से वह आंशिक रूप से पाप से विरत होता है अर्थात् वह आंशिक रूप से व्रतों का पालन करता है।
इसे विरताविरत, संयतासंयत और देशसंयत भी कहते है, क्योंकि इस गुणस्थान पर रहा हआ जीव सर्वज्ञ वीतराग के कथन में श्रद्धा रखता हुआ त्रस जीवों की हिंसा का त्याग करता है, किन्तु बिना प्रयोजन से स्थावर जीवों की भी हिंसा नहीं करता है, अर्थात् त्रस जीवों के त्याग की अपेक्षा से विरत और स्थावर जीवों की हिंसा की अपेक्षा से अविरत होने के कारण विरताविरत आदि नाम दिये गये हैं। श्रावक के बारह व्रतों में से कोई एक, कोई दो यावत् कोई बारह व्रतों को धारण कर सकता है तथा कोई ग्यारह प्रतिमाओं का भी आराधन करता है।
प्रथम चार गुणस्थान चारों गतियों के जीव में होते है, किन्तु पाँचवाँ गुणस्थान मनुष्य और संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय को ही होता है। इस गुणस्थान का आराधक जीव, जघन्य तीसरे भव एवं उत्कृष्ट सात-आठ अर्थात् पन्द्रह भवों में मोक्ष में जाता है। सात भव वैमानिक देवों के और आठ भव मनुष्य के करता है। इसकी काल स्थिति जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन करोड़ पूर्व है।
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